भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कुटिल मंत्रणा
कंस ने महामन्त्री की ओर देखा। उसकी दृष्टि का तात्पर्य था कि महामन्त्री की योजना क्या है; क्योंकि इन्द्रियों के अधिदेवता तो इन्द्र, सूर्य, अग्नि, वायु आदि ही हैं। अब तक सभी असुरों ने इन्द्रियों की अपेक्षा ही की है। अब क्या महामन्त्री सब असुरों को इन्द्रिय-दमन का उपदेश करना चाहते हैं? ‘देवताओं का मूल है विष्णु’ –महामन्त्री ने फिर प्रारम्भ किया– ‘वही सनातन धर्म का रक्षक है और ब्राह्मण, वेद, गायें तथा दक्षिणायुक्त यज्ञ विष्णु को पुष्ट करते हैं। अत: हम सब तपस्या करने तथा यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों को तथा यज्ञ के लिए घी, दूध आदि देनेवाली गायों को मार देंगे।’ कंस ने देखा कि उनके मन्त्री कुछ अधिक बुद्धिमान नहीं हैं। प्रारम्भ से ही ये देवताओं की ही चर्चा करते रहे हैं और मूल बात गौण हो गयी है। मूल बात तो उस शत्रु को ढूंढ़ना और मार देना है जो कहीं प्रकट हो चुका है। ‘आप अपनी बात स्मरण रखें और आज से ही लग जायें।’ कंस ने पूतना को सम्मान देते हुए कहा– ‘सबसे महत्व का कार्य आपका है और सभी के अन्त:पुर में आप जा सकती हैं। ‘हम गोष्ठों का ध्वंस करके एक ओर से सब नरेशों तथा व्रजपतियों को शत्रु बना लेंगे।’ कंस ने चेतावनी दी– ‘अवश्य ही तपस्वियों, यज्ञशील विप्रों को आतंकित करके विरत किया जाना चाहिये–कंस ने आदेश इतना ही दिया; किन्तु उसके अनुचर तो स्वभाव से हिंसाप्रिय, साधुद्वेषी थे। उन्हें मनमाना अत्याचार करने की छुट्टी मिल गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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