भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
योगमाया
कंस सीधे वसुदेव जी के कक्ष में पहुँचा। वसुदेव जी वैसे ही दोनों हाथों पर मस्तक रखे मुख नीचे किये बैठे रहे। वे मूर्ति के समान निस्पन्द बैठे रहे। न उन्होंने कंस की ओर दृष्टि उठायी, न कंस ने उनकी ओर देखा। ‘भैया! मैं तुम्हारी छोटी बहिन हूँ और इस बार यह कन्या आयी है मेरे अंक में!’ माता देवकी अत्यन्त दीन स्वर में कंस के द्वार में आते ही पुकार उठीं– ‘मुझे यह एक पुत्री दे दो। यह तो मेरी अन्तिम सन्तान है भैया!’ ‘पुत्री?’ कंस ठिठक गया दो क्षण को। ‘हां भैया, यह पुत्री है और तुम्हारे पुत्र से इसका विवाह कर दूँगी। यह तुम्हारी पुत्रवधु बनेगी।’ माता अत्यन्त कातर स्वर में प्रार्थना कर रही थीं- ‘तुमने मेरे अग्नि के समान अनेक पुत्र मार दिये भाई! तुम तो देव-प्रेरित थे, दोष तुम्हारा नहीं है; किन्तु अब स्त्री-हत्या मत करो। यह पुत्री मुझे दे दो।’ ‘हूँ! यह पुत्री है!’ कंस ने हुंकार की। उसका तात्पर्य था कि– ‘मैं जानता हूँ कि मुझे छलने के लिए मोहिनी बनने वाला यह मायावी यहाँ कन्या बनकर आया है।’ माता ने सरल भाव से कन्या को हृदय से हटाकर कंस के आगे कर दिया– ‘देख लो, यह कन्या है! इसे छोड़ दो!’ लेकिन कंस ने इतने में तो उस बालिका का पैर पकड़ा और माता के हाथों से झपट लिया उसे। माता ने चीत्कार किया और मूर्च्छित हो गयीं। कंस वैसे ही बालिका को लिये हुए कक्ष से बाहर कारागार-प्रांगण के कोने में पड़ी शिला के समीप आया; किन्तु वह शिला अब कहाँ शिशु-रक्त से स्नान को आज प्रस्तुत है। वह तो आज रात्रि की महावृष्टि में धुलकर स्वच्छ हो चुकी है। बालिका का पैर पकड़े कंस ने उसे मस्तक के ऊपर उठाकर घुमाया। वह उसे अन्य शिशुओं की भाँति शिला पर पटक देना चाहता था; किन्तु कंस के हाथ से बालिका का चरण छूट गया। भला योगमाया कहीं ऐसे किसी को अपने चरण पकड़े रहने देती हैं। कंस ने चौंककर ऊपर देखा और उसके हाथ से शस्त्र छूट गिरा। वह देखता रह गया। वहाँ गगन तो प्रखर प्रकाश से परिपूर्ण हो गया। वहाँ वह कन्या कहाँ थी? कैसी कन्या और कैसी बालिका? वहाँ तो प्रचण्ड तेजोमयी तप्तस्वर्णवर्णा, अष्टभुजा महादेवी गगन में अपने दिव्य शतपत्र रथ पर नीलाम्बर धारण किये विराजमान थी और उसके आठों हाथों में शूल, खड्ग, घण्टा, कपाल, खट्वांग, कमल, पास और तर्जन मुद्रा थी। उस मयूर पिच्छकी ध्वजा वाले दिव्य रथ में चार सिंह जुते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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