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वासुदेव गोकुल गये
यह जो स्वामी पर छत्र बने शुभ्रकान्ति अनन्त चुपचाप चले आ रहे हैं–प्रलय में इनकी फुंकार से समस्त पयोधि जल पलक झपकते वाष्प बनकर उड़ जाता है! यमुना को इस समय आतंक नहीं है, उल्लास है। उन्हें स्वागत करना है। मार्ग देना है। ठीक है कि चन्द्रोदय हो चुका है; किन्तु इस मेघाडम्बर में कहीं शशि का पता लग सकता है? मथुरा में तो पथ-प्रदीप तक झंझावेग में बुझ चुके हैं। सूचीभेद्य अन्धकार है चारों ओर। केवल क्षण-क्षण में चमकती चपला प्रकाश फैलाती है। वसुदेवजी का पथ प्रकाशित है। वह विद्युत की चमक है या भगवान् शेष के सहस्त्र फणों की मणियों का प्रकाश है, यह देखने जानने की स्थिति में वसुदेवजी नहीं हैं। वसुदेवजी सीधे बढ़ रहे हैं। कारागार के ठीक सामने उस पार गोकुल है। उन्हें शीघ्र गोकुल पहुँचना है। उन्होंने नहीं देखा कि पथ किधर है, कैसा है।
पथ के दोनों ओर के भवन कौन देखत–पद के नीचे बहता जल तो उन्होंने देखा ही नहीं। उन्हें यह भी पता नहीं लगा कि कब वे पथ के बहते जल से यमुना के प्रवाह में उतरे और कब यमुना से बाहर निकले सर्वत्र ही तो जल था। यमुना कब आयीं, कब पीछे छूटीं–यह उन्हें नहीं जान पड़ा, कालिन्दी ने उन्हें पथ दे दिया घुटने-घुटने जल बनाकर अपना और वे गोकुल पहुँच गये। योगमाया अदभुत है। वे अविद्या हैं तो विद्या भी हैं। वे तामसजनों को निद्रा से मोहित करती हैं, राजसों के समीप श्रान्ति बनकर आती हैं तो सात्विकजनों के लिए समाधि भी वही बनती हैं। मथुरा में सब घोर निद्रा में पड़े थे तो गोकुल में भी कोई जाग नहीं रहा था। यहाँ भी सब सो गये थे। अदभुत अलौकिक तन्द्रा–सत्वगुण के समुद्रेक में सबकी समस्त इन्द्रिय-वृतियाँ शान्त–अन्तर्लीन हो गयी थीं। पशु तक सो गये थे पूरे गोकुल के इस समय।
वसुदेवजी के पद त्वरापूर्वक उठते गये। उन्हें कोई अज्ञात शक्ति ही ले जा रही थी। गोकुल कब आया, कब वे नन्द-भवन के खुले द्वार में प्रविष्ट हुए यह उन्हें पता नहीं। वे चलते हुए सीधे मैया यशोदा के प्रसूति-कक्ष में पहुँचे और तब रुक गये। वसुदेवजी ने मस्तक से सूप उतारा और शिशु को उठाकर प्रसुप्त यशोदाजी के अंक में रखने बढ़े। सहसा दृष्टि पड़ी एक नवजात बालिका पर। वह नन्हीं एकटक देख रही थी वसुदेवजी की ओर। धीर से मुस्करा उठी वह और वसुदेवजी की रही-सही सुधि भी खो गयी। उन्हें स्मरण ही नहीं कि कब उन्होंने अपने शिशु को शय्या पर रखा और कब उनके करों ने उस कन्या को उठाकर सूप में सुला दिया। सूप को मस्तक पर रखकर वे जैसे आये थे, वैसे ही लौट चले।
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