भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
4.सर्वोच्च वास्तविकता
अपनी आधिविद्यक स्थिति[1] के समर्थन में गीता मे कोई युक्तियां प्रस्तुत नहीं की गई। भगवान की वास्तविकता ऐसा प्रश्न नहीं है, जिसे ऐसी तर्क-प्रणाली द्वारा हल किया जा सके, जिसे मानव-जाति का विशाल बहुमत समझ पाने में असमर्थ रहेगा। तर्क अपने-आप, किसी व्यक्तिगत अनुभव के निर्देश के बिना हमें विश्वास नहीं दिला सकता। आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में प्रमाण केवल आत्मिक अनुभव से प्राप्त हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अभिमत
- ↑ लाओत्से से तुलना कीजिएः “वह ताओ, जिसे कोई नाम दिया जा सकता है, सच्चा ताओ नहीं है।” “निराकार की वास्तविकता और जिसका आकार है, उसकी अवास्तविकता सबको मालूम है। जो लोग ज्ञान-प्राप्ति के मार्ग पर चल रहे हैं, वे इन बातों की परवाह नहीं करते, परन्तु अन्य लोग इन चीज़ों पर वाद-विवाद करते हैं। ज्ञान-प्राप्ति का अर्थ है - विवाद न करना। वाद-विवाद करने का अर्थ है - ज्ञान की प्राप्ति न होना। प्रकट रूप में दीख पड़ने वाले ताओ का कोई वस्तुरूपात्मक मूल्य नहीं हैः इसलिए बहस करने की अपेक्षा मौन रहना अधिक अच्छा है। इसे वाणी द्वारा प्रकट नहीं किया जा सकता; इसलिए यह अधिक अच्छा है कि कुछ कहा ही न जाए। यही महान उपलब्धि कही जाती है।” सूटहिलः द थ्री रिलिजन्स ऑफ़ चाइना; दूसरा संस्करण (1923), पृ. 56-57। जब बुद्ध से ब्रह्म और निर्वाण की प्रकृति के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया, तो उसने शान्त मौन धारण कर लिया। ईसा ने भी, जब उससे पौण्टियस पाइलेट ने सत्य की प्रकृति के विषय में प्रश्न किया था, तब इसी प्रकार की चुप्पी साध ली थी। प्लौटिनस से तुलना कीजिएः यदि कोई प्रकृति से यह पूछे कि वह उत्पादन क्यों करती है, तो यदि वह सुनने और बोलने को इच्छुक हो, तो वह यह उत्तर देगी कि तुम्हें यह बात पूछनी नहीं चाहिए, बल्कि मौन रहते हुए समझनी चाहिए। जैसे मैं मौन रहती हूँ; क्योंकि मुझे बोलने की आदत नहीं है।
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