भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 9

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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4.सर्वोच्च वास्तविकता

अपनी आधिविद्यक स्थिति[1] के समर्थन में गीता मे कोई युक्तियां प्रस्तुत नहीं की गई। भगवान की वास्तविकता ऐसा प्रश्न नहीं है, जिसे ऐसी तर्क-प्रणाली द्वारा हल किया जा सके, जिसे मानव-जाति का विशाल बहुमत समझ पाने में असमर्थ रहेगा। तर्क अपने-आप, किसी व्यक्तिगत अनुभव के निर्देश के बिना हमें विश्वास नहीं दिला सकता। आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में प्रमाण केवल आत्मिक अनुभव से प्राप्त हो सकता है।
उपनिषदों में परब्रह्म की वास्तविकता की बात ज़ोर देकर कही गई है। यह परब्रह्म अद्वितीय है। उसमें कोई गुण या विशेषताएं नहीं हैं। यह मनुष्य की गूढ़तम आत्मा के साथ तद्रूप है। आध्यात्मिक अनुभव एक सर्वोच्च एकता के चारों ओर केन्द्रित रहता है, जो ज्ञाता और ज्ञेय के द्वैत पर विजय पा लेती है। इस अनुभव को पूरी तरह हृदयंगम कर पाने की असमर्थता का परिणाम यह होता है कि उसका वर्णन एक शुद्ध और निर्विशेष के रूप में किया जाता है। ब्रह्म स्वतन्त्र सत्ता के रूप में विद्यमान निर्विशेषता है। वह अन्तः स्फुरणा में, जो कि उसका अपना अस्तित्व है, अपना विषय स्वयं ही होता है। यह वह विशुद्ध कर्ता है, जिसके अस्तित्व को बाह्य या वस्तुरूपात्मक जगत में नहीं छोड़ा जा सकता।
यदि ठीक-ठीक कहा जाए, तो हम ब्रह्म का किसी प्रकार वर्णन नहीं कर सकते। कठोर चुप्पी ही वह एकमात्र उपाय है, जिसके द्वारा हम अपने अटकते हुए वर्णनों और अपूर्ण प्रमापों की अपर्याप्तता को प्रकट कर सकते हैं।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अभिमत
  2. लाओत्से से तुलना कीजिएः “वह ताओ, जिसे कोई नाम दिया जा सकता है, सच्चा ताओ नहीं है।” “निराकार की वास्तविकता और जिसका आकार है, उसकी अवास्तविकता सबको मालूम है। जो लोग ज्ञान-प्राप्ति के मार्ग पर चल रहे हैं, वे इन बातों की परवाह नहीं करते, परन्तु अन्य लोग इन चीज़ों पर वाद-विवाद करते हैं। ज्ञान-प्राप्ति का अर्थ है - विवाद न करना। वाद-विवाद करने का अर्थ है - ज्ञान की प्राप्ति न होना। प्रकट रूप में दीख पड़ने वाले ताओ का कोई वस्तुरूपात्मक मूल्य नहीं हैः इसलिए बहस करने की अपेक्षा मौन रहना अधिक अच्छा है। इसे वाणी द्वारा प्रकट नहीं किया जा सकता; इसलिए यह अधिक अच्छा है कि कुछ कहा ही न जाए। यही महान उपलब्धि कही जाती है।” सूटहिलः द थ्री रिलिजन्स ऑफ़ चाइना; दूसरा संस्करण (1923), पृ. 56-57। जब बुद्ध से ब्रह्म और निर्वाण की प्रकृति के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया, तो उसने शान्त मौन धारण कर लिया। ईसा ने भी, जब उससे पौण्टियस पाइलेट ने सत्य की प्रकृति के विषय में प्रश्न किया था, तब इसी प्रकार की चुप्पी साध ली थी। प्लौटिनस से तुलना कीजिएः यदि कोई प्रकृति से यह पूछे कि वह उत्पादन क्यों करती है, तो यदि वह सुनने और बोलने को इच्छुक हो, तो वह यह उत्तर देगी कि तुम्हें यह बात पूछनी नहीं चाहिए, बल्कि मौन रहते हुए समझनी चाहिए। जैसे मैं मौन रहती हूँ; क्योंकि मुझे बोलने की आदत नहीं है।

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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