भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 19

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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5.गुरु कृष्ण

व्यक्ति के रूप में कृष्ण उन करोड़ों रूपों में से एक है, जिनके द्वारा विश्वात्मा अपने-आप को प्रकट करता है। गीता के लेखक ने ऐतिहासिक कृष्ण का उल्लेख उसके शिष्य अर्जुन के साथ-साथ अनेक रूपों में से एक रूप के तौर पर किया है।[1]अवतार मनुष्य के आध्यात्मिक साधनों और प्रसुप्त दिव्यता का प्रदर्शन है। यह दिव्य गौरव का मानवीय रूपरेखा की सीमाओं में संकुचित हो जाना उतना नहीं है, जितना कि मानवीय प्रकृति का भगवान के साथ एकाकार होकर ईश्वरत्व के स्तर तक ऊँचा उठ जाना।
परन्तु ईश्वरवादियों का कथन है कि कृष्ण एक अवतार है अर्थात ब्रह्म का मानवीय रूप में अवतरण। यद्यपि भगवान जन्म नहीं लेता या उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता, फिर भी वह बहुत बार जन्म ले चुका है। कृष्ण विष्णु का मानवीय साक्षात रूप है। वह भगवान है, जो संसार को ऐसा प्रतीत होता है, मानो उसने जन्म ले लिया है और शरीर धारण कर लिया है।[2]दिव्य ब्रह्म द्वारा मानवीय स्वभाव को अंगीकार कर लेने से ब्रह्म की अखण्डता समाप्त नहीं होती और न उसमें कोई वृद्धि ही होती है, ठीक उसी प्रकार जैसे संसार के सृजन से ब्रह्म की अखण्डता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सृष्टि और अवतार दोनों का सम्बन्ध व्यक्त जगत से है, परमात्मा से नहीं।[3]
यदि असीम परमात्मा सदा सीमित अस्तित्वों में प्रकट रहता है, तो उसका किसी एक विशिष्ट समय में विशेष रूप से और किसी एक मानवीय स्वभाव को ग्रहण करके प्रकट होना उसी गतिविधि को स्वेच्छापूर्वक पूर्ण करना-भर है, जिसके द्वारा दैवीय प्रचुरता स्वतन्त्रतापूर्वक अपने-आप को पूर्ण करता है और ससीम की ओर झुकती रहती है। इसके फलस्वरूप उसके अलावा कोई नई समस्या खड़ी नहीं होती, जो सृष्टि के कारण खड़ी होती है। यदि कोई मानव-शरीर परमात्मा की मूर्ति के रूप में गढ़ा जा सकता है, यदि आवर्तनशील ऊर्जा की सामग्री में नये नमूने रचे जा सकता हैं, यदि इन रीतियों से शाश्वतता को आनुक्रमिकता में समाविष्ट किया जा सकता है, तो दिव्य वास्तविकता (ब्रह्म) अपने अस्तित्व के परम स्वरूप को एक पूर्णतया मानवीय शरीर के रूप में और उस मानवीय शरीर के द्वारा प्रकट कर सकती है। मध्यकालीन दार्शनिक धर्म-विज्ञानियों ने हमें बताया है कि परमात्मा सब प्राणियों में ‘सार, सान्निध्य और शक्ति द्वारा’ विद्यमान रहता है। परम, असीम, स्वतः विद्यमान और अविकार्य का ससीम मानव-प्राणी के साथ, जो सांसारिक व्यवस्था में फंसा हुआ है, सम्बन्ध कल्पनातीत रूप से घनिष्ठ है, हालांकि इस सम्बन्ध की परिभाषा कर पाना और उसका स्पष्टीकरण कर पाना कठिन है। उन महान आत्माओं को, जिन्हें हम अवतार कहते हैं, परमात्मा, जो मानव के अस्तित्व और गौरव के लिए उत्तरदायी है, इस अस्तित्व और गौरव को आश्चर्यजनक रूप से नवीन रूप दे देता है। अवतारों में उस सनातन का, जो विश्व की प्रत्येक घटना में विद्यमान है, आनुक्रमिकता में प्रवेश एक गम्भीरतर अर्थ में प्रकट होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 10, 37
  2. शंकराचार्य ने लिखा हैः स च भगवान् ज्ञानैश्वर्यशक्तिबलवीर्यतेजोभिः सदा सम्पन्नः त्रिगुणात्मिकां वैष्णवीं स्वां मायां मूलप्रकृतिं वशीकृत्य अजोऽव्ययो भूतानामीश्वरो नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावोऽपि सन् स्वमायया देहवान् इव जात इव लोकानुग्रहं कुर्वन्निव लक्ष्यते। ‘अंशेन सम्बभूव’ का अर्थ यह नहीं है कि कृष्ण भगवान के अंश से उत्पन्न हुआ है या वह भगवान का अंशावतार है। आनन्दगिरि ने ‘अंशेन’ की व्याख्या करते हुए यह अर्थ निकाला है कि “अपनी इच्छा से रचे गए तात्त्विक रूप में,” स्वेच्छानिर्मितेन मायामयेन स्वरूपेण। जहाँ अपोसल-सम्प्रदाय में परमात्मा के पुत्र की मानवीय प्रकृति पर ज़ोर दिया गया है, “जिसका गर्भाधन पवित्र आत्मा ने किया था, जिसे कुमारी मेरी ने जन्म दिया था, जिसने पौण्टियस पाइलेट के अधीन कष्ट सहे, जिसे क्रॉस पर चढ़ाया गया था, जो मरा था और जिस दफ़नाया गया था,” वहाँ नाइसीन सम्प्रदाय ने इतनी बात और जोड़ दी है कि “वह स्वर्ग से नीचे आया और शरीर बन गया।” यह ‘नीचे आना या ‘परमात्मा का उतरकर शरीर धारण कर लेना’ ही अवतार है।
  3. हूकर से तुलना कीजिएः परमात्मा का मनुष्य के साथ वह स्तुत्य सम्मिलन उस उच्चतर स्वभाव में कोई परिवर्तन उत्पन्न नहीं कर सकता; क्योंकि परमात्मा के लिए और कोई भी वस्तु इतनी स्वाभाविक नहीं है, जितना कि उसका किसी भी परिवर्तन का विषय न बनना।” ऐक्लीज़ियेस्टीकल पॉलिटी (1888 का संस्करण) खण्ड, 2, पृ. 234

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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