भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
5.गुरु कृष्ण
व्यक्ति के रूप में कृष्ण उन करोड़ों रूपों में से एक है, जिनके द्वारा विश्वात्मा अपने-आप को प्रकट करता है। गीता के लेखक ने ऐतिहासिक कृष्ण का उल्लेख उसके शिष्य अर्जुन के साथ-साथ अनेक रूपों में से एक रूप के तौर पर किया है।[1]अवतार मनुष्य के आध्यात्मिक साधनों और प्रसुप्त दिव्यता का प्रदर्शन है। यह दिव्य गौरव का मानवीय रूपरेखा की सीमाओं में संकुचित हो जाना उतना नहीं है, जितना कि मानवीय प्रकृति का भगवान के साथ एकाकार होकर ईश्वरत्व के स्तर तक ऊँचा उठ जाना। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10, 37
- ↑ शंकराचार्य ने लिखा हैः स च भगवान् ज्ञानैश्वर्यशक्तिबलवीर्यतेजोभिः सदा सम्पन्नः त्रिगुणात्मिकां वैष्णवीं स्वां मायां मूलप्रकृतिं वशीकृत्य अजोऽव्ययो भूतानामीश्वरो नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावोऽपि सन् स्वमायया देहवान् इव जात इव लोकानुग्रहं कुर्वन्निव लक्ष्यते। ‘अंशेन सम्बभूव’ का अर्थ यह नहीं है कि कृष्ण भगवान के अंश से उत्पन्न हुआ है या वह भगवान का अंशावतार है। आनन्दगिरि ने ‘अंशेन’ की व्याख्या करते हुए यह अर्थ निकाला है कि “अपनी इच्छा से रचे गए तात्त्विक रूप में,” स्वेच्छानिर्मितेन मायामयेन स्वरूपेण। जहाँ अपोसल-सम्प्रदाय में परमात्मा के पुत्र की मानवीय प्रकृति पर ज़ोर दिया गया है, “जिसका गर्भाधन पवित्र आत्मा ने किया था, जिसे कुमारी मेरी ने जन्म दिया था, जिसने पौण्टियस पाइलेट के अधीन कष्ट सहे, जिसे क्रॉस पर चढ़ाया गया था, जो मरा था और जिस दफ़नाया गया था,” वहाँ नाइसीन सम्प्रदाय ने इतनी बात और जोड़ दी है कि “वह स्वर्ग से नीचे आया और शरीर बन गया।” यह ‘नीचे आना या ‘परमात्मा का उतरकर शरीर धारण कर लेना’ ही अवतार है।
- ↑ हूकर से तुलना कीजिएः परमात्मा का मनुष्य के साथ वह स्तुत्य सम्मिलन उस उच्चतर स्वभाव में कोई परिवर्तन उत्पन्न नहीं कर सकता; क्योंकि परमात्मा के लिए और कोई भी वस्तु इतनी स्वाभाविक नहीं है, जितना कि उसका किसी भी परिवर्तन का विषय न बनना।” ऐक्लीज़ियेस्टीकल पॉलिटी (1888 का संस्करण) खण्ड, 2, पृ. 234
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