भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 91

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास

  
37. हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥

(37)यदि तू युद्ध में मारा गया तो तू स्वर्ग पहुँचेगा; यदि तू विजयी हुआ तो तू पृथ्वी का उपभोग करेगा। इसलिए हे कुन्ती पुत्र (अर्जुन), तू लड़ने का निश्चय करके खड़ा हो। चाहे हम आधिविद्यक सत्य को देखें, चाहे सामाजिक कर्त्तव्य को; हमारा मार्ग स्पष्ट है। ठीक भावना से अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए कहीं ऊंचा उठ पाना सम्भव है; और अगले श्लोक में कृष्ण उस सही भावना का संकेत करता है।

  38. सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥

(38)सुख और दुःख को, लाभ और हानि को, जय और पराजय को समान समझ और युद्ध के लिए तैयार हो जा; तब तुझे पाप नहीं लगेगा। इस पर भी, इससे पहले के श्लोकों में कृष्ण ने लज्जा का विचार करने पर स्वर्ग की प्राप्ति पर और भौतिक प्रभुत्व पर जोर दिया है। सांसारिक बातों को कहने के बाद अब वह घोषणा करता है कि इस युद्ध को समबुद्धि भावना से करना होगा। परिवर्तन की अधीरतापूर्ण इच्छा के सम्मुख झुके बिना, भावुकतापूर्ण उतार-चढ़ावों के अधीन हुए बिना हमें अपने -आप को सौंपे गए काम को उन परिस्थितियों में रहते हुए करना है, जिनमे हमें ला खड़ा किया गया है। जब हमें शाश्वत भगवान् में विश्वास हो जाता है, और हम उसकी वास्तविकता को अनुभव कर लेते हैं,तब इस संसार के कष्ट हमें विचलित नहीं करते। [1]जो व्यक्ति अपने जीवन के सच्चे लक्ष्य को खोज निकालता है और अपने-आप को पूरी तरह उसके लिए समर्पित कर देता है, वह महात्मा है। भले ही उससे बाकी सब चीजें छीन ली जांए, भले ही उसे नंगा, भूखा और अकेला सड़कों पर भटकना पड़े, भले ही उसे कोई ऐसा मानव-प्राणी न दिखाई पड़ता हो, जिससे वह आंखें मिला सके और उससे सहानुभूति पा सके, फिर भी वह मुस्कुराता हुआ अपनी राह पर चलता जाएगा, क्योंकि उसे आन्तरिक स्वाधीनता प्राप्त हो चुकी है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस बात को प्रकट करने के लिए मध्य ने व्यास को उद्धृत किया है। शुद्धात्मतत्त्वविज्ञानं सांख्यमित्यभिधीयते। तुलना कीजिएः श्वेताश्वतर उपनिषद्ः सांख्ययोगाधिकम्यम्। 6,13

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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