भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 84

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

Prev.png
अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास

व्यक्तिक ईश्वर, दिव्य स्रष्टा, अनुभवजन्य विश्व का समकालीन है। वह अनुभवगम्य अस्तित्वों का पूर्णरूप है। ’’जीवों का स्वामी गर्भ के अन्दर विचरण करता है। जन्म बिना लिये भी वह अनेक रूपों में जन्म लेता है।’’[1] शंकराचार्य का कथन है कि ’’वस्तुतः केवल परमात्मा ही है, जो पुनर्जन्म लेता है।’’[2]इसकी पास्कल के इस वक्तव्य से तुलना कीजिए कि इस संसार का अन्त होने तक ईसा कष्ट सहता रहेगा। मानवता पर जो आघात किए जाते हैं, उन्हें वह अपने ऊपर ले लेता है। सिरजी गई वस्तुओं की दशाओं को वह सहन करता है। मुक्त आत्माएं जब तक काल है, तब तक कष्ट उठाती हैं और काल समय भी भाग लेती हैं। अन्तर इतना है कि व्यक्तिक भगवान् ने स्वेच्छा से अपने-आप को सीमित किया हुआ है, जबकि हम विवशता के कारण सीमित हैं। यदि वह भगवान् प्रकृति के इस नाटक का स्वामी है, तो हम इसके नाटक के अधीन पात्र हैं। अज्ञान व्यक्तिगत आत्मा पर प्रभाव डालता है, परन्तु विश्वजनीन आत्मा पर नहीं। जब तक विश्व की प्रक्रिया समान्त न हो, तब तक व्यक्तियों की अनेकता और उनके पृथक्-पृथक् गुण विद्यमान रहते हैं। यह बहुविधता सृष्टि से पृथक् नहीं की जा सकती। मुक्त आत्माएं सत्य को जानती हैं और उसी में जीवन बिताती हैं, जबकि अमुक्त आत्माएं कर्म के बन्धन में फंसी हुई एक जन्म के बाद दूसरा जन्म लेती जाती हैं।

13.देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥

जैसे शरीर में आत्मा बचपन से यौवन और वार्धक्य में से गुजरता है, उसी प्रकार की वस्तु इसका दूसरा शरीर धारण कर लेना है। धीर व्यक्ति इससे घबराता नहीं। तुलना कीजिए, विष्णुस्मृति: 20,49। मानव- प्राणी जन्म और मरण की एक श्रंखला में से गुजरकर अपने-आप को अमरता के योग्य बना लेता है। शरीर में होने वाले परिवर्तनों का अर्थ आत्मा में परिवर्तन नहीं है। इसके द्वारा धारण किए गए शरीरों में से कोई भी नित्य नहीं है।

14.मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोअनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥

(14)हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), वस्तुओं के साथ सम्पर्क के कारण ठण्ड और गर्मी, सुख और दुःख उत्पन्न होते हैं। वे आते हैं और चले जाते हैं; सदा के लिए नहीं रहते। हे भारत (अर्जुन), उनको सहन करना सीख।


Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तर् अजायमानो बहुधा विजायते। वाजसनेयिसंहिता 31, 19; साथ ही देखिए 32, 4
  2. सत्यं नेश्वरादन्यत् संसारी (ब्रह्मसूत्र पर शांकर भाष्य 1,1,5)।

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः