भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास व्यक्तिक ईश्वर, दिव्य स्रष्टा, अनुभवजन्य विश्व का समकालीन है। वह अनुभवगम्य अस्तित्वों का पूर्णरूप है। ’’जीवों का स्वामी गर्भ के अन्दर विचरण करता है। जन्म बिना लिये भी वह अनेक रूपों में जन्म लेता है।’’[1] शंकराचार्य का कथन है कि ’’वस्तुतः केवल परमात्मा ही है, जो पुनर्जन्म लेता है।’’[2]इसकी पास्कल के इस वक्तव्य से तुलना कीजिए कि इस संसार का अन्त होने तक ईसा कष्ट सहता रहेगा। मानवता पर जो आघात किए जाते हैं, उन्हें वह अपने ऊपर ले लेता है। सिरजी गई वस्तुओं की दशाओं को वह सहन करता है। मुक्त आत्माएं जब तक काल है, तब तक कष्ट उठाती हैं और काल समय भी भाग लेती हैं। अन्तर इतना है कि व्यक्तिक भगवान् ने स्वेच्छा से अपने-आप को सीमित किया हुआ है, जबकि हम विवशता के कारण सीमित हैं। यदि वह भगवान् प्रकृति के इस नाटक का स्वामी है, तो हम इसके नाटक के अधीन पात्र हैं। अज्ञान व्यक्तिगत आत्मा पर प्रभाव डालता है, परन्तु विश्वजनीन आत्मा पर नहीं। जब तक विश्व की प्रक्रिया समान्त न हो, तब तक व्यक्तियों की अनेकता और उनके पृथक्-पृथक् गुण विद्यमान रहते हैं। यह बहुविधता सृष्टि से पृथक् नहीं की जा सकती। मुक्त आत्माएं सत्य को जानती हैं और उसी में जीवन बिताती हैं, जबकि अमुक्त आत्माएं कर्म के बन्धन में फंसी हुई एक जन्म के बाद दूसरा जन्म लेती जाती हैं। 13.देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। जैसे शरीर में आत्मा बचपन से यौवन और वार्धक्य में से गुजरता है, उसी प्रकार की वस्तु इसका दूसरा शरीर धारण कर लेना है। धीर व्यक्ति इससे घबराता नहीं। तुलना कीजिए, विष्णुस्मृति: 20,49। मानव- प्राणी जन्म और मरण की एक श्रंखला में से गुजरकर अपने-आप को अमरता के योग्य बना लेता है। शरीर में होने वाले परिवर्तनों का अर्थ आत्मा में परिवर्तन नहीं है। इसके द्वारा धारण किए गए शरीरों में से कोई भी नित्य नहीं है। 14.मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः । (14)हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), वस्तुओं के साथ सम्पर्क के कारण ठण्ड और गर्मी, सुख और दुःख उत्पन्न होते हैं। वे आते हैं और चले जाते हैं; सदा के लिए नहीं रहते। हे भारत (अर्जुन), उनको सहन करना सीख।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तर् अजायमानो बहुधा विजायते। वाजसनेयिसंहिता 31, 19; साथ ही देखिए 32, 4
- ↑ सत्यं नेश्वरादन्यत् संसारी (ब्रह्मसूत्र पर शांकर भाष्य 1,1,5)।
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