भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय -1
अर्जुन की दुविधा और विषाद 32.नकांषेविजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च। हे कृष्ण, मुझे विजय नहीं चाहिए और न राज्य चाहिए और न सुख ही चाहिए। हमें राज्य से, सुख-भोग से, यहाँ तक कि जीवित रहकर भी क्या करना है? गहरे शोक के क्षणों में हमारी प्रवृत्ति त्याग पद्धाति को अपनाने की ओर होने लगती है। इस श्लोक में संसार के त्याग की ओर अर्जुन का झुकाव सूचित होता है: संन्याससाधनसूचनम्। --मधुसूदन। 33.येषामर्थे काड्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च। जिनके लिये हम राज्य, भोग और सुख चाहते थे, वे लोग तो अपने प्राणों और धन का मोह त्यागकर यहाँ युद्ध में आ खड़े हुए हैं। 34.आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः। गुरु, पिता, पुत्र और दादा, मामा, श्वसुर, पौत्र और साले तथा अन्य सम्बन्धी (यहाँ खडे़ हैं)। 35.एकान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोअपि मधुसूदन । तीनों लोकों के राज्य के लिए भी, हे कृष्ण, मैं इन्हें मारने को तैयार नहीं हूँ। फिर इस पृथ्वी के राज्य के लिए तो कहना ही क्या। भले ही ये लोग मुझे क्यों न मार डालें। तीनों लोकों से अभिप्राय पृथ्वी, स्वर्ग और अन्तरिक्ष की वैदिक धारणा से है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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