भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 73

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय -1
अर्जुन की दुविधा और विषाद

32.नकांषेविजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा॥

हे कृष्ण, मुझे विजय नहीं चाहिए और न राज्य चाहिए और न सुख ही चाहिए। हमें राज्य से, सुख-भोग से, यहाँ तक कि जीवित रहकर भी क्या करना है? गहरे शोक के क्षणों में हमारी प्रवृत्ति त्याग पद्धाति को अपनाने की ओर होने लगती है। इस श्लोक में संसार के त्याग की ओर अर्जुन का झुकाव सूचित होता है: संन्याससाधनसूचनम्। --मधुसूदन।

33.येषामर्थे काड्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेअवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥

जिनके लिये हम राज्य, भोग और सुख चाहते थे, वे लोग तो अपने प्राणों और धन का मोह त्यागकर यहाँ युद्ध में आ खड़े हुए हैं।

34.आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्थता॥

गुरु, पिता, पुत्र और दादा, मामा, श्वसुर, पौत्र और साले तथा अन्य सम्बन्धी (यहाँ खडे़ हैं)।

35.एकान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोअपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्य हेतोः किं नु महीकृते ॥

तीनों लोकों के राज्य के लिए भी, हे कृष्ण, मैं इन्हें मारने को तैयार नहीं हूँ। फिर इस पृथ्वी के राज्य के लिए तो कहना ही क्या। भले ही ये लोग मुझे क्यों न मार डालें। तीनों लोकों से अभिप्राय पृथ्वी, स्वर्ग और अन्तरिक्ष की वैदिक धारणा से है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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