भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 72

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय -1
अर्जुन की दुविधा और विषाद

                          
28.कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥

उसका हृदय दया से भर आया और उसने उदास होकर कहाः स्वजनम्: उसके अपने लोग, सम्बन्धी। अर्जुन को कष्ट और चिन्ता हत्या के विचार से उतनी नहीं हुई, जितनी अपने सम्बन्धियों की हत्या के विचार से। साथ ही देखिए, अध्याय 1, श्लोक 31,37 और 45। सामान्यतया युद्धों के प्रति हमारा दृष्टिकोण यान्त्रिक-सा रहता है। और हम युद्ध से सम्बन्धित आंकड़ों में उलझ जाते हैं। परन्तु थोड़ी -सी कल्पना से हम इस बात को अनुभव कर सकते हैं कि किस प्रकार हमारे शत्रु भी मानव प्राणी हैं। वे भी पिता और पितामह हैं। उनके भी अपने वैयक्तिक जीवन हैं। उनकी भी अपनी इच्छाएं और आकाक्षाएं हैं। आगे चलकर अर्जुन पूछता है कि क्या इतना संहार कर देने के बाद प्राप्त हुई विजय किसी काम की होगी भी या नहीं। दे0अ01, श्लो0 36।

अर्जुन का विषाद

हे कृष्ण, अपने लोगों को अपने सामने युद्ध के लिए अधीर खडे़ देखकर,

   29.सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ॥

मेरे अंग ढीले पड़ रहे हैं। मेरा मुँह सूख रहा है और रोंगटे खड़े हो रहे हैं।

   30.गांडीवं स्त्रंसते हस्तात्वक्चैव परिह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥

गाण्डीव धनुष मेरे हाथ से फिसला जा रहा है और मेरी सारी त्वचा में जलन हो रही है। मुझसे खड़ा नहीं रहा जाता और मेरा मन चकरा-सा रहा है। अर्जुन के शब्दों से हमारे मन में एक ऐसे व्यक्ति के अकेलेपन का विचार आता है, जो सन्देह, विनाश के भय और खोखलेपन (निरर्थकता) से पीड़ित है, जिससे स्वर्ग और पृथ्वी की समृद्धि और मानवीय प्रेम का सुख छिना जा रहा है। यह असह्य विषाद सामान्यता उन सब लोगों को अनुभव होता है, जो वास्तविकता का (ब्रह्म) दर्शन करने के अभिलाषा होते हैं।

   31.निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोअनुपश्चामि हत्वा स्वजनमाहवे॥

और हे केशव, मुझे अपशकुन दिखाई पड़ रहे हैं। इस युद्ध में अपने सम्बन्धियों को मारने से मुझे कोई भलाई होती दिखाई नहीं पड़ती। अपशकुनों की ओर अर्जुन का ध्यान जाना उसकी मानसिक दुर्बलता और अस्थिरता का सूचक है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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