भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 70

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय -1
अर्जुन की दुविधा और विषाद

21.हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेअच्युत॥

हे पृथ्वी के स्वामी, तब उसने हृषीकेश (कृष्ण) से ये शब्द कहे: ’हे अच्युत मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले जाकर खड़ा करो। अच्युत: अविचल; यह भी कृष्ण का नाम है।[1]

22.यावदेतान्निरीक्षेअंह योद्धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥

जिससे मैं इन लोगों को देख सकूँ, जो युद्ध के लिए उत्सुक खड़े हैं, और जिनके साथ मुझे इस युद्ध में लड़ना है।
 
23.योत्स्यमानानवेक्षेअंह य एतअत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः॥

मैं उन सबको देखना चाहता हूँ, जो यहाँ लड़ने के लिए उद्यत होकर इकट्ठे हुए हैं और जो दुष्ट बुद्धि वाले दुर्योधन का युद्ध में भला करने की इच्छा से आए हैं। युद्ध की सारी तैयारियाँ पूरी हो चुकी है। उसी प्रातः काल युधिष्ठिर ने भीष्म द्वारा की गई दुभेंद्य व्यूह-रचना को देखा था। भय से काँपते हुए उसने अर्जुन से कहा थाः ’’इस सेना के मुकाबले में हम कैसे जीत सकते हैं?’’[2] अर्जुन ने एक प्राचीन श्लोक का उद्धरण देकर अपने भाई को उत्साहित किया थाः ’’ विजय की इच्छा रखने वाले लोग शक्ति और बल से उतना नहीं जीतते, जितना सत्य, करुणा, दया और पुण्य से। जहाँ कृष्ण हैं, वहाँ विजय सुनिश्चित है।’’’ विजय उसके गुणों में से एक है और उसी प्रकार विनय भी।’’[3] कृष्ण अर्जुन को अपने-आप को शुद्ध करने और सफलता के लिए दुर्गा से प्रार्थना करष्ने की सलाह देता है। अर्जुन अपने रथ से उतर पड़ता है इस भक्ति से प्रसन्न हो कर देवी अर्जुन को वर देती है: ’’ हे पाण्डव, तू बहुत जल्दी अपने शत्रुओं को जीत लेगा। स्वयं भगवान् नारायण तेरी सहायता करने के लिए विद्यमान हैं।’’ और फिर भी अर्जुन ने एक कर्मशील मनुष्य की भाँति अपने इस कार्य की उलझनों पर विचार नहीं किया। अपने गुरु की उपस्थिति, भगवान् की चेतना उसे यह समझने में सहायता देती है कि जिन शत्रुओं से उसे लड़ना है, वे उसके लिए प्रिय और पूज्य हैं। उसे न्याय की रक्षा और अवैध हिंसा के दमन के लिए सामाजिक बन्धनों को तोड़ना होगा। पृथ्वी पर भगवान् के राज्य की स्थापना भगवान् और मनुष्य के मध्य सहयोग से होने वाला कार्य है। सृष्टि के कार्य में मनुष्य भी समान भाग लेने वाला है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.कृष्ण के लिए प्रयोग में आने वाले अन्य नाम ये हैः मधुसूदन (मधु राक्षस को मारने वाला,) अरिसूदन (शत्रुओं को मारने वाला) गोविन्द (ग्वाला या ज्ञान देने वाला), वासुदेव (वसुदेव का पुत्र) यादव (यदु का वंशज), केशव (सुन्दर बाल वाला), माधव (लक्ष्मी का पति), हृषीकेश (इन्द्रियों का स्वामी हृ्रषी+ईश), जनार्दन (मनुष्यों को स्वतन्त्र कराने वाला)। अर्जुन के लिए प्रयोग में लाए गए अन्य नाम ये हैं भारत (भरत का वंशज), धनंजय (धन को जीतने वाला), गुडाकेश (जिसके बाल गेंद की तरह बंधे हुए हैं), पार्थ (पृथा का पुत्र), परन्तप (शत्रुओं को सताने वाला)।
  2. धनज्जय कथं शक्यमस्माभिर्योद्धु माहवे। - महाभारत, भीष्मपर्व 21,31
  3. युध्यध्वमनहकंरा यतोधर्मस्ततो जयः’’’ यतः कृष्णस्ततो जयः, वही 21, 11-12

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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