भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय -1
अर्जुन की दुविधा और विषाद 21.हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते। मैं उन सबको देखना चाहता हूँ, जो यहाँ लड़ने के लिए उद्यत होकर इकट्ठे हुए हैं और जो दुष्ट बुद्धि वाले दुर्योधन का युद्ध में भला करने की इच्छा से आए हैं। युद्ध की सारी तैयारियाँ पूरी हो चुकी है। उसी प्रातः काल युधिष्ठिर ने भीष्म द्वारा की गई दुभेंद्य व्यूह-रचना को देखा था। भय से काँपते हुए उसने अर्जुन से कहा थाः ’’इस सेना के मुकाबले में हम कैसे जीत सकते हैं?’’[2] अर्जुन ने एक प्राचीन श्लोक का उद्धरण देकर अपने भाई को उत्साहित किया थाः ’’ विजय की इच्छा रखने वाले लोग शक्ति और बल से उतना नहीं जीतते, जितना सत्य, करुणा, दया और पुण्य से। जहाँ कृष्ण हैं, वहाँ विजय सुनिश्चित है।’’’ विजय उसके गुणों में से एक है और उसी प्रकार विनय भी।’’[3] कृष्ण अर्जुन को अपने-आप को शुद्ध करने और सफलता के लिए दुर्गा से प्रार्थना करष्ने की सलाह देता है। अर्जुन अपने रथ से उतर पड़ता है इस भक्ति से प्रसन्न हो कर देवी अर्जुन को वर देती है: ’’ हे पाण्डव, तू बहुत जल्दी अपने शत्रुओं को जीत लेगा। स्वयं भगवान् नारायण तेरी सहायता करने के लिए विद्यमान हैं।’’ और फिर भी अर्जुन ने एक कर्मशील मनुष्य की भाँति अपने इस कार्य की उलझनों पर विचार नहीं किया। अपने गुरु की उपस्थिति, भगवान् की चेतना उसे यह समझने में सहायता देती है कि जिन शत्रुओं से उसे लड़ना है, वे उसके लिए प्रिय और पूज्य हैं। उसे न्याय की रक्षा और अवैध हिंसा के दमन के लिए सामाजिक बन्धनों को तोड़ना होगा। पृथ्वी पर भगवान् के राज्य की स्थापना भगवान् और मनुष्य के मध्य सहयोग से होने वाला कार्य है। सृष्टि के कार्य में मनुष्य भी समान भाग लेने वाला है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.कृष्ण के लिए प्रयोग में आने वाले अन्य नाम ये हैः मधुसूदन (मधु राक्षस को मारने वाला,) अरिसूदन (शत्रुओं को मारने वाला) गोविन्द (ग्वाला या ज्ञान देने वाला), वासुदेव (वसुदेव का पुत्र) यादव (यदु का वंशज), केशव (सुन्दर बाल वाला), माधव (लक्ष्मी का पति), हृषीकेश (इन्द्रियों का स्वामी हृ्रषी+ईश), जनार्दन (मनुष्यों को स्वतन्त्र कराने वाला)। अर्जुन के लिए प्रयोग में लाए गए अन्य नाम ये हैं भारत (भरत का वंशज), धनंजय (धन को जीतने वाला), गुडाकेश (जिसके बाल गेंद की तरह बंधे हुए हैं), पार्थ (पृथा का पुत्र), परन्तप (शत्रुओं को सताने वाला)।
- ↑ धनज्जय कथं शक्यमस्माभिर्योद्धु माहवे। - महाभारत, भीष्मपर्व 21,31
- ↑ युध्यध्वमनहकंरा यतोधर्मस्ततो जयः’’’ यतः कृष्णस्ततो जयः, वही 21, 11-12
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