भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 49

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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11.भक्तिमार्ग

इस तथ्य पर ज़ोर दिया गया है कि जबकि अन्य भक्त लोग अन्य लक्ष्यों तक पहुँचते हैं, केवल वह, जो भगवान् का भक्त होता है, परम आनन्द को प्राप्त करता है।[1] जहाँ तक पूजा भक्ति के साथ की जाती है, वह हृदय को पवित्र करती है और मन को उच्चतर चेतना के लिए तैयार करती है। हर कोई भगवान् की मूर्ति अपनी इच्छाओं के अनुरूप ढाल लेता है। मरते हुए व्यक्ति के लिए परमात्मा शाश्वत जीवन है; जो लोग अन्धकार में भटक रहे है उसके लिए वह प्रकाश है।[2] जिस प्रकार क्षितिज सदा हमारी आँखों के बराबर ऊँचाई पर ही रहता है, चाहे हम कितना ही ऊँचा क्यों न पढ़ते चले जाएं, उसी प्रकार परमात्मा का स्वभाव भी हमारी अपनी चेतना के स्तर से ऊँचा नहीं हो सकता। निम्नतर स्थितियों में हम धन और जीवन के लिए प्रार्थना करते हैं, और भगवान् को भौतिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाला माना जाता है।
बाद में चलकर चिन्तन में हम अपने-आप को सत्यप्रयोजनों के साथ, जो भगवान् के प्रयोजन हैं, एकात्म करते हैं। उच्चतम स्थितियों में परमात्मा एक अन्तिम सन्तुष्टि बन जाता है, वह अपर जो मानव-आत्मा को पूर्ण कर देता है और भर देता है। मधुसूदन ने भक्ति की परिभाषा करते हुए इसे एक ऐसी मानसिक दशा बताया है, जिसमें मन प्रेमावेश से प्रेरित होकर भगवान् का रूप धारण कर लेता है।[3] जब परमात्मा के प्रति भावनात्मक अनुराग अत्यधिक आनन्दमय हो उठता है, तब भक्त-प्रेम अपने-आप को परमात्मा में भुला देता है।[4] प्रहलाद, जिसमें हमें परमात्मा में पूर्ण लीनता की आध्यात्मिक दशा दिखाई पड़ती है, परम पुरुष के साथ अपनी एकता को अभिव्यक्त करता है। इस प्रकार का आत्मविस्मृतिकारक परमोल्ला समय अनुभव अद्वैतवादी अधिविद्या का समर्थक नहीं माना जा सकता।
अपरोक्षानुभव में या उस अन्तिम दशा में, जिसमें व्यक्ति परब्रह्म में लीन हुआ रहता है, वह पृथक् व्यक्ति के रूप में शेष नहीं रहता। भक्ति ज्ञान की ओर ले जाती है। रामानुज की दृष्टि में यह स्मृति-सन्तान है। प्रपत्ति भी ज्ञान का ही एक रूप है। जब भक्ति प्रबल होती है, तब आत्मा में निवास करने वाला भगवान् अपनी करुणा के कारण भक्त जो ज्ञान का प्रकाश प्रदान करता है। भक्त अपने-आप को भगवान् के साथ घनिष्ठ रूप से संयुक्त अनुभव करता है। भगवान् का अनुभव एक ऐसी सत्ता के रूप में होता है, जिसमें सब प्रतिपक्ष लुप्त हो जाते हैं। वह अपने अन्दर भगवान् को और भगवान् में अपने-आप को देखता है। प्रहलाद का कथन है कि मनुष्य का सबसे बड़ा उद्देश्य भगवान् की परम भक्ति और उसकी विद्यमानता को सब जगह अनुभव करना है।[5]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 7, 21। मध्व टीका करते हुए लिखता हैः “अन्तो ब्रह्मादिभक्तानां मद्भक्तानामनन्तता।”
  2. तुलना कीजिएः

    रूजासु नाथः परमं हि भेषजं, तमः प्रदीपा विषमेषु संक्रमः। भयेषु रक्षा व्यसनेषु बान्धवो, भवत्यगाधे विषयाम्भसि प्लवः॥

  3. द्रवीभावपूर्विका हि मनसो भगवदाकारता सविकल्पका वृत्तिरूपा भक्तिः।
  4. .“वृष्णि लोग...कृष्ण के ध्यान में लीन हो गए और अपनी पृथक् सत्ता को पूर्णतया भुला बैठे।”—भक्तिरत्नावली, 16
  5. एकान्तभक्तिर्गोविन्दे यत्सर्वत्र तदीक्षणम्। भागवत 7, 7, 35

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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