भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 44

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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11.भक्तिमार्ग

भक्ति व्यक्तिक परमात्मा के साथ विश्वास और प्रेम का सम्बन्ध है। अव्यक्त की पूजा (अव्यक्तोपासना) साधारण मानव-प्राणियों के लिए कठिन है, हालांकि ऐसे महान् अद्वैतियों के अनेक उदाहरण विद्यमान हैं, जिन्होंने अव्यक्तिक वास्तविकता (निराकार ब्रह्म) को बहुत सजीव भावुक रूप दिया।[1] व्यक्तिक परमात्मा की पूजा दुर्बल और निम्न, अशिक्षित और अज्ञानी[2] सब लोगों के लिए एक सरलतर उपाय के रूप में प्रस्तुत की गई है। प्रेम की बलि उतनी कठिन नहीं है, जितना कि अपनी इच्छाशक्ति को भगवान् के प्रयोजन की ओर या तपस्यामय अनुशासन की ओर या चिन्तन के थका देने वाले प्रयत्न की ओर मोड़ पाना।
भक्ति-मार्ग का मूल अत्यन्त पुरातन काल की धुंध में छिपा हुआ है। ऋग्वेद की स्तुतियों और प्रार्थनाओं, उपनिषदों की उपासनाओं और भागवत धर्म की तीव्र धर्मनिष्ठा का प्रभाव गीता के लेखक पर पड़ा है। उसने उपनिषदों के धार्मिक पक्ष से सम्बन्ध रखने वाली उस विचारधारा को विकति करने का प्रयत्न किया है, जिसे उपनिषदकार उन्मुक्त और सुस्पष्ट रूप में व्यक्त नहीं कर पाए थे। भगवान् ऐसा परमात्मा नहीं है, जो कि उस समय भी शान्तिपूर्ण अव्यक्तता में शयन करता रहता हो, जबकि आर्त हृदय सहायता के लिए पुकार रहे हों, अपितु एक प्रेमपूर्ण रक्षक परमात्मा है, जिस पर भक्त लोग इसी रूप में विश्वास करते हैं और अनुभव करते हैं। वह उन लोगों को मुक्ति प्रदान करता है, जो उसमें विश्वास करते हैं। वह घोषणा करता है, “यह मेरा वचन है कि जो मुझसे प्रेम करता है, वह कभी नष्ट नहीं होगा।”[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भक्तिमार्गों लोग अद्वैतवादियों द्वारा ज्ञान पर बहुत ज़ोर देने की बहुत निन्दा करते हैं। वे इसे निन्दनीय विश्वास-भेद या आत्मा का हनन करने वाली भूल बताते हैं, हालांकि शंकराचार्य ने क्रमशः मुक्ति की तैयारी के रूप में भक्ति के महत्त्व को स्वीकार किया है।
  2. 9, 32; साथ ही देखिए 11, 53-54; 12, 1-5। “व्याध ने कौन-से अच्छे आचरण किए थे? ध्रुब की आयु ही क्या थी? गजेन्द्र का ज्ञान कितना था? उग्रसेन ने क्या वीरता दिखाई थी? कुब्जा की सुन्दता क्या थी? सुदामा के पास कितना धन था? भगवान् तो भक्ति के प्रेमी हैं और वे भक्ति से प्रसन्न होते हैं। वे (अन्य) गुणों की कोई परवाह नहीं करते।”

    व्याधस्याचरणं ध्रुवस्य च वयो विद्या गजेन्द्रस्य का, जातिर्विदुरस्य यादवपतेरूग्रस्य कि पौरूषम्। कुब्जयाः कमनीयरूपमधिकं किं तत् सुदाम्नो धनं, भक्त्या तुष्यति केवल न तु गुणैः भक्तिप्रियो माधवः॥

    एक श्लोक में, जो शंकराचार्य का लिखा बताया जाता है, कहा गया हैः “चाहे किसी को मनुष्य का या देवता का, या पहाड़ी या जंगली पशु का मच्छर का या पालतू जानवर का, या कीड़े का या पक्षी का, या इसी प्रकार का कोई और जन्म भी क्यों न मिला हो, परन्तु यदि उसका हृदय इस जन्म में सदा तुम्हारे चरण-कमलों के चिन्तन में लीन रहता है, जो कि परम आनन्द का प्रवाह है, तो शरीर किसका है, इसका क्या महत्त्व है?”

    नरत्वं देवत्वं नगवनमृगत्व मशकता, पशुत्वं कीटत्वं भवतु विहगत्वादिजनम्।
    दसा त्वत्पादाब्जस्मरणपरमानन्दलहरी, विहारासक्तं चेद् हृदयमिह किं तेन वपुषा॥

    भक्ति का महत्त्व प्रतिपादित करने का यह कुछ अत्युक्तिपूर्ण-सा ढंग है।
  3. 9, 13

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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