भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
10.ज्ञानमार्ग
मनुष्य अपने अस्तित्व के केवल एक अंश को, अपनी ऊपरी सतह की मनोवृत्ति को ही जानता है। इस सतह के नीचे भी बहुत कुछ है, जिसे वह बिलकुल नहीं जानता, हालांकि उस नीचे वाली वस्तु का उसके आचरण पर अनेक रूपों में प्रभाव पड़ता है। कभी-कभी हम पूर्णतया अपने मनोवेगों के, सहज वृत्ति के और अस्वैच्छिक प्रतिक्रियाओं के वशीभूत हो जाते हैं, जो सचेत विवेक के नियम को उलट देती हैं। पागल व्यक्ति जहाँ इन मनोवेगों के पूर्णतया अधीन होता है, वहाँ हममें से अनेक भी उनके प्रभाव के वशवर्ती होते हैं, हालांकि सामान्य व्यक्तियों में इस प्रकार की दशाएं अस्थायी होती हैं। प्रेम या विद्वैष की प्रबल भावना के आवेश में हम ऐसी बातें कह या कर जाते हैं, जिनके बारे में जब हम बाद में अपने आपे में आते हैं, तब हमें पश्चाताप होता है। हमारी भाषा ‘वह आपे से बाहर हो गया’ वह अपने-आप को भूल बैठा’, ‘वह तो मानो वह ही नहीं रहा’, पुरातन दृष्टिकोणों की इस सचाई का संकेत करती है कि जो मनुष्य किसी तीव्र भावना से अभिभूत रहता है, उसमें कोई शैतान या भूत आ घुसा होता है।[1] जब तीव्र मनोवेग जाग उठते हैं, तब हम अधिकाधिक उद्दीप्य हो जाते हैं और सब प्रकार के असंयत विचार हम पर हावी हो जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ “आकर्षण, मुग्धता, अपने-आप को खो बैठना, अध्किार करना और इसी प्रकार अन्य भावनाएं अचेतन तत्त्वों द्वारा चेतना के विषंग (संग से पृथक् करना), नियन्त्रण और दमन के तत्त्व हैं।”—जुंगः इण्टैग्रेशन ऑफ़ पर्सनैलिटी, अंग्रेज़ी अनुवाद (1940), पृ. 12
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