भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-18
निष्कर्ष मनुष्यों में उसके अधिक मेरा प्रिय कार्य करने वाला और कोई नहीं है; और संसार में उससे बढ़कर मुझे और कोई प्रिय होगा भी नहीं।वे महात्मा लोग, जो संसार के सागर को पार कर चुके हैं और जो दूसरे लोगों को उसे पार करने में सहायता देते हैं, परमात्मा को सबसे अधिक प्रिय हैं। 70.अध्येष्यते च य इमं धम्र्य संवादमावयोः। और जो व्यक्ति हमारे इस पवित्र संवाद का अध्ययन करेगा, मैं ऐसा समझता हूँ कि वह ज्ञानयज्ञ द्वारा मेरी पूजा रहा होगा। 71.श्रद्धावाननसूयश्य श्रृणुयादपि यो नरः। और जो मनुष्य श्रद्धा के साथ बिना ईर्ष्यां किये इस संवाद को सुनेगा, वह भी मुक्त होकर पुण्यात्माओं के आनन्दमय लोकों में पहुँच जाएगा। 72.कच्चिदेतच्छतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा। हे पार्थ (अर्जुन), क्या तूने एकाग्रचित्त होकर इस सबको सुना है? हे धनंजय (अर्जुन), क्या तेरी अज्ञान के कारण उत्पन्न घबराहट (सम्मोह) दूर हो गई है? अर्जुन उवाच 73.नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। अर्जुन ने कहा: हे अच्युत (कृष्ण), तेरी कृपा से मेरा मोह (भ्रम) नष्ट हो गया है और स्मृति फिर लौट आई है। अब मेरे सन्देह समाप्त हो गए हैं और में स्थिर हो गया हूँ। मैं तेरे कहे के अनुसार काम करूंगा। अर्जुन अपने नियत किए गए, कर्म की ओर अभिमुख होता है, अहंकारपूर्ण मन से नहीं, अपितु आत्मज्ञान के कारण।[1] उसके भ्रम नष्ट हो गए हैं और उसके अन्दर दूर हो गए हैं। परमात्मा के चुने हुए साधन के रूप में वह संसार के स्वामी द्वारा नियत किए गए कर्त्तव्य को स्वीकार करता है। अब वह परमात्मा के आदेश के अनुसार काम करेगा। उसने इस बात को अनुभव कर लिया है कि परमात्मा ने उसे अपने प्रयोजन के लिए बनाया है, उसके अपने प्रयोजन के लिए नहीं। ठीक वस्तु का चुनाव करने की स्वतंत्रता नैतिक प्रशिक्षण पर निर्भर है। केवल अच्छाई द्वारा हम आत्मा की स्वतन्त्रता तक ऊपर उठ सकते हैं, जो हमें उस अपरिष्कृतता में से बाहर निकाल ले जाती है, जिसकी ओर शरीर का झुकाव रहता है। अर्जुन पर प्रलोभन का आक्रमण हुआ था और उसने मुक्ति देने वाली विजय की ओर जाने वाला मार्ग खोज लिया। वह अनुभव करता है कि वह परमात्मा के आदेश को पूर्ण करेगा, क्योंकि उसे बल देने के लिए परमात्मा विद्यमान है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अज्ञानसम्मोहश आत्मस्मृतिलाभः। - शंकराचार्य।
- ↑ त्वया हृषीकेश हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोअस्मि तथा करोमि।
- ↑ मार्क 14, 32-41। ’’पिता (परमात्मा) ने मुझे जैसा आदेश दिया था, मैं वैसा करता हूँ।’’- जान 14, 31
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