भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 251

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-18
निष्कर्ष
संन्यास कर्म का ही नहीं, अपितु कर्म के फल का किया जाना चाहिए

मानवीय स्वतन्त्रता के सिद्धान्त और पूर्व नियतवाद(पूर्वनिर्णयन) के सिद्धान्त के मध्य संघर्ष के कारण यूरोप और भारत में काफी वाद-विवाद हुआ है। टाॅमस ऐक्वाइनास का मत है कि संकल्प-शक्ति और मानवीय प्रयत्न की स्वतन्त्रता का मनुष्य के उद्धार में बहुत बड़ा हाथ होता है, यद्यपि स्वयं संकल्प-शक्ति को भी परमात्मा की कृपा के समर्थन की आवश्यकता पड़ सकती है। ’’पूर्वनिर्णयनवादियों को भी अच्छे कार्यों और प्रार्थना के लिए यत्न करना होगा; क्योंकि इन उपयों के द्वारा पूर्वविधान को आगे बढ़ाने में सहायक तो हो सकते हैं, परन्तु वे उसमें बाधा नहीं डाल सकते। ’’[1] मनुष्य इस बात के लिए स्वतन्त्र है कि वह परमात्मा द्वारा प्रस्तुत की गई उसकी कृपा को अस्वीकार कर दे। बोनावेन्त्यूरा का विचार है कि परमात्मा मनुष्यों पर कृपा करना चाहता है, परन्तु केवल उन लोगों पर, जो अपने आचरण द्वारा अपने-आप को उस कृपा को ग्रहण करने के लिए तैयार करते हैं। डन्स स्कौटस की दृष्टि में, क्योंकि इच्छा की स्वतन्त्रता परमात्मा का आदेश है, इसलिए परमात्मा भी मनुष्य के निश्चय पर कोई सीधा प्रभाव नहीं डाल सकता। मनुष्य चाहे तो परमात्मा कीकृपा के साथ सहयोग कर सकता है, पर वह चाहे तो सहायोग से विरत भी रह सकता है।आध्यात्मिक नेता हम पर शारीरिक हिंसा द्वारा, चमत्कार-प्रदर्शन द्वारा या जादू द्वारा प्रभाव नहीं डालते। सच्चा गुरु मिथ्या दायित्व नहीं लेता।
यदि शिष्य कोई गलती भी कर बैठे, तो वह उसे केवल सलाह देगा और यदि शिष्य की चुनाव करने की स्वतन्त्रता पर आंच आती हो, तो वह उसे गलत रास्ते से भी वापस लौट आने के लिए विवश नहीं करेगा। गलती भी विकास की एक दशा है। गुरु शिष्य के प्रारम्भिक कदमों को उसी प्रकार उत्साहित करता है, जिस प्रकार पिता बच्चे के लड़खड़ाते कदमों को बढ़ावा देता है। जब शिष्य फिसलकर गिरता है, तो गुरु सहायता के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाता है, पर अपने मार्ग को चुनने और अपने कदमों को संभालकर रखने का काम वह शिष्य परी ही छोड़ देता है।कृष्ण केवल सारथी है; वह अर्जुन के निर्देश का पालन करेगा। उसने कोई शस्त्र धारण नहीं किया हुआ। यदि वह अर्जुन पर कोई प्रभाव डालता है, तो वह अपने उस सर्वजयी प्रेम द्वारा डालता है, जो कभी समाप्त नहीं होता। अर्जुन को अपने लिए स्वयं विचार करना चाहिए और अपने लिए स्वयं ही मार्ग खोज निकालना चाहिए। उसे उन सीधे-सादे अन्धविश्वासों के आधार पर कार्य नहीं करना चाहिए, जो कि आदत से या शब्दप्रमाण से प्राप्त हुए हैं। अस्पष्ट मान्यताओं को अनिवार्य रूप से और भावुकतापूर्वक अपना लिए जाने के फलस्वरूप कट्टर धर्मान्धताएं उत्पन्न हुई हैं और उनके कारण मनुष्यों को अकथनीय कष्ट उठाना पड़ा है। इसलिए यह आवश्यक है कि मन और विश्वासों के लिए कोई तर्कसंगत और अनुभवात्मक औचित्य ढूंढे। अर्जुन को एक वास्तविक अखण्डता की अनुभूति प्राप्त करनी होगी; परन्तु उसके विचार उसके अपने हैं और गुरु द्वारा उस पर थोपे नहीं गए हैं। दूसरों पर अपने सिद्धान्तों को थोपना शिक्षण नहीं है।

अन्तिम अनुरोध

64.सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः।
इष्टोअसि मे दृढ़मिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥

अब तू मेरे सर्वोच्च वचनों को सुन, जो सबसे अधिक रहस्यपूर्ण है। क्योंकि तू मेरा प्रिय है, इसलिए मैं तुझे यह बतलाऊंगा कि तेरे लिए क्या वस्तु हितकर है।

65.मन्मना भव भद्धक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोअसि मे॥

अपने मन को मुझमें लगा; मेरा भक्त बन; मेरे लिए यज्ञ कर; मुझे प्रमाण कर। इस प्रकार तू मुझ तक पहुँच जाएगा। मैं तुझे सचमुच इस बात का वचन देता हूं, क्योंकि तू मुझे प्रिय है।जिस सर्वोच्च उपदेश के साथ गुरु ने नौवें अध्याय (34) को समाप्त किया था, उसी चरम रहस्य को यहाँ फिर दुहराया गया है।विचार, पूजा, यज्ञ और श्रद्धा इन सबको परमात्मा की ओर लगाया जाना चाहिए। हमें परमात्मा के सम्मुख एक सरल, अविराम और विश्वासपूर्ण आत्मसमर्पण के साथ पहुँचना चाहिए। हमें अपने-आप को इस ईसाई पद के शब्दों में उसके सम्मुख खोल देना चाहिए: ’’हे प्रिय, मैं अपने-आप को तेरे हाथों में सौपंता हूं, सदा तेरा, केवल तेरा बनने के लिए।’’ परमात्मा हमें वापस अपने पास ले आने के लिए अपनी दयालुता, प्रेम और उत्सुकता के अपने स्वभाव को प्रकट करता है। वह इस बात की प्रतीक्षा कर रहा है कि यदि हम केवल अपने हृदय उसके लिए खोल दें, तो वह उनमें प्रवेश कर जाए और हम पर अधिकार कर ले। हमारा आत्मिक जीवन हमारे उस तक जाने पर भी उतना ही निर्भर है, जितना कि उसके हम तक आने पर। यह केवल हमारा परमात्मा तक आरोहण नहीं, अपितु परमात्मा का मनुष्य तक अवरोहण भी है। कवि ठाकुर के शब्दों पर ध्यान दें: ’’तुमने उसकी निःशब्द पदचाप नहीं सुनी? वह आता है, आता है, नित्य आता है।’’ परमात्मा का प्रेम हमारी आत्माओं पर दबाव डाल रहा है और यदि हम अपने-आप को उसके अनवरत आगमन के लिए खोल दें, तो वह हमारी आत्मा मे प्रविष्ट हो जाएगा, वह हमारे स्वभाव को स्वच्छ कर देगा और उसे मुक्त कर देगा और हमें दमकते हुए प्रकाश की भाँति चमका देगा। परमात्मा, जो सहायता के लिए सदा उद्यत है, केवल इस बात की प्रतीक्षा कर रहा है कि हम उससे विश्वासपूर्ण सहायता के लिए अनुरोध करें।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सम्मा थियोलोजिका। अंगे्रजी अनुवाद इंगलिश डोमीनिकन प्रौविन्स के पादरियों द्वारा। द्वितीय संस्करण (1929), खण्ड 1, क्यू0 23, अनुच्छेद 8

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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