भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-18
निष्कर्ष अपने चित्त में सब कर्मों को मुझे समर्पित करके मुझे भगवान् समझकर बुद्धि की स्थिरता का अभ्यास करता हुआ तू अपने विचारों को निरन्तर मुझमें लगाए रख।’’मन, संकल्प और चेतना द्वारा सदा मेरे साथ एकाकार रह।’’ विश्व के ईश्वर के प्रति पूर्ण आत्मदान के फलस्वरूप् वह ईश्वर हमारे जीवन की आत्मा बन जाता है। 58.मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि। अपने चित्त को मुझमें स्थिर करके तू मेरी कृपा से सब कठिनाइयों को पार कर जाएगा; परन्तु यदि अहंकार के कारण तू मेरी बात न सुनेगा, तो तू विनष्ट हो जाएगा।मनुष्य मुक्ति या नरकवास में से किसी एक को चुनने के लिए स्वतन्त्र है। यदि मोहवश यह समझें कि हम सर्वशक्तिमान् की इच्छा का प्रतिरोध कर सकते हैं, तो हमें कष्ट उठाना पड़ेगा। परमात्मा की अवज्ञा अहंकार की भावना के कारण होती है और अन्ततोगत्वा वह निश्शक्त रहती है। 59.यदहकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे। यदि अहंकार के वश में होकर तू यह सोचे कि ’मैं नहीं लडूंगा’ तो तेरा यह निश्चय व्यर्थ है। प्रकृति तुझे विवश करेगी।’न लड़ने की’ इच्छा उसकी केवल ऊपरी प्रकृति (स्वभाव) की अभिव्यक्ति होगी; उसका गम्भीरतर अस्तित्व उसे युद्ध की ओर ले जाएगा। यदि वह कष्ट के भय से अपने शस्त्र त्याग देता है और युद्ध से विरत हो जाता है और यदि युद्ध उसके बिना भी चलता रहता है और वह अनुभव करता है कि उसके युद्ध से विरत रहने के परिणाम मानवता के लिए विनाशकारी होंगे, तो वह विश्वात्मा केक निष्ठुर दबाव द्वारा हथियार उठाने के लिए प्रेरित किया जाएगा। इसलिए उसे विश्व के विकास का निषेध और विरोध करने के बजाय उसमें सहयोग करना और उसे आगे बढ़ाने का यत्न करना चाहिए। यदि वह ऐसा करे, तो वह सारतःनिर्धारित उपकरण से बदलकर एक निर्धारक उपकरण बन जाएगा। अर्जुन की निम्नतर प्रकृति उसके भ्रम का और उसके अपने अस्तित्व के उच्चतर सत्य से पतन का कारण बनेगी। 60.स्वभावजेन कौन्तये निबद्धः स्वेन कर्मणा। हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), तू भ्रम के कारण (मोहवश) जिसे करना नहीं चाहता, उसे भी तू इच्छा न होते हुए भी अपने स्वभाव से उत्पन्न कर्म के कारण बंधा हुआ करेगा।अपने स्वभाव की विवश कर देने वाली शक्ति के द्वारा तुम उसकी ओर धकेल ही दिए जाओगे।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज