भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 249

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

Prev.png
अध्याय-18
निष्कर्ष
संन्यास कर्म का ही नहीं, अपितु कर्म के फल का किया जाना चाहिए

   
57.चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चितः सततं भव॥

अपने चित्त में सब कर्मों को मुझे समर्पित करके मुझे भगवान् समझकर बुद्धि की स्थिरता का अभ्यास करता हुआ तू अपने विचारों को निरन्तर मुझमें लगाए रख।’’मन, संकल्प और चेतना द्वारा सदा मेरे साथ एकाकार रह।’’ विश्व के ईश्वर के प्रति पूर्ण आत्मदान के फलस्वरूप् वह ईश्वर हमारे जीवन की आत्मा बन जाता है।

58.मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहकरान्न श्रोष्यसि विनडक्ष्यसि॥

अपने चित्त को मुझमें स्थिर करके तू मेरी कृपा से सब कठिनाइयों को पार कर जाएगा; परन्तु यदि अहंकार के कारण तू मेरी बात न सुनेगा, तो तू विनष्ट हो जाएगा।मनुष्य मुक्ति या नरकवास में से किसी एक को चुनने के लिए स्वतन्त्र है। यदि मोहवश यह समझें कि हम सर्वशक्तिमान् की इच्छा का प्रतिरोध कर सकते हैं, तो हमें कष्ट उठाना पड़ेगा। परमात्मा की अवज्ञा अहंकार की भावना के कारण होती है और अन्ततोगत्वा वह निश्शक्त रहती है।

59.यदहकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति॥

यदि अहंकार के वश में होकर तू यह सोचे कि ’मैं नहीं लडूंगा’ तो तेरा यह निश्चय व्यर्थ है। प्रकृति तुझे विवश करेगी।’न लड़ने की’ इच्छा उसकी केवल ऊपरी प्रकृति (स्वभाव) की अभिव्यक्ति होगी; उसका गम्भीरतर अस्तित्व उसे युद्ध की ओर ले जाएगा। यदि वह कष्ट के भय से अपने शस्त्र त्याग देता है और युद्ध से विरत हो जाता है और यदि युद्ध उसके बिना भी चलता रहता है और वह अनुभव करता है कि उसके युद्ध से विरत रहने के परिणाम मानवता के लिए विनाशकारी होंगे, तो वह विश्वात्मा केक निष्ठुर दबाव द्वारा हथियार उठाने के लिए प्रेरित किया जाएगा। इसलिए उसे विश्व के विकास का निषेध और विरोध करने के बजाय उसमें सहयोग करना और उसे आगे बढ़ाने का यत्न करना चाहिए। यदि वह ऐसा करे, तो वह सारतःनिर्धारित उपकरण से बदलकर एक निर्धारक उपकरण बन जाएगा। अर्जुन की निम्नतर प्रकृति उसके भ्रम का और उसके अपने अस्तित्व के उच्चतर सत्य से पतन का कारण बनेगी।
अब अर्जुन ने सत्य को देख लिया है और वह स्वार्थ के लिए नहीं, अपितु भगवान् के सचेत उपकरण के रूप में कार्य कर सकता है। साधक को सारे स्वार्थपूर्ण भय का त्याग करना होगा और अपने आन्तरिक प्रकाश का आदेश मानना होगा, जो उसे सब संकटों और बाधाओं के पार ले जाएगा।परमात्मा हमारे सम्मुख शर्तें रख देता है और उन्हें स्वीकार करना हमारा काम है। हमें बहाव के विरुद्ध संघर्ष करने में अपनी शक्ति का अपव्यय नहीं करना चाहिए। हममें से अधिकांश लोग स्वाभाविक मनुष्य होते हैं, जो अपनी छोटी-छोटी योजनाओं के विषय में बहुत उत्सुक, आवेशपूर्ण और सुनिश्चित होते हैं। परन्तु हमें बदलना होगा। जिस उपाय द्वारा हम अधिकतम उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं वह परमात्मा की इच्छा के सम्मुख सिर झुका देने का ही है। सेण्ट फ्रांसिस डि सालेस की एक प्रिय प्रार्थना में इस पूर्ण अधीनता की इस भावना को संक्षेप में इस प्रकार प्रकट किया गया है: ’’हां पिता, हां, और सर्वदा हां। ’’

60.स्वभावजेन कौन्तये निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात् करिष्यस्यवशोअपि तत्॥

हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), तू भ्रम के कारण (मोहवश) जिसे करना नहीं चाहता, उसे भी तू इच्छा न होते हुए भी अपने स्वभाव से उत्पन्न कर्म के कारण बंधा हुआ करेगा।अपने स्वभाव की विवश कर देने वाली शक्ति के द्वारा तुम उसकी ओर धकेल ही दिए जाओगे।


Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः