भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-18
निष्कर्ष संन्यास कर्म का ही नहीं, अपितु कर्म के फल का किया जाना चाहिए कार्य का स्थान और इसी प्रकार कर्ता, विविध प्रकार के साधन, विविध प्रकार की चेष्टाएं और पांचवां भाग्य;’अधिष्ठान’ या कर्म का स्थान, इससे भौतिक शरीर की ओर संकेत है। कर्ता: करने वाला। शंकराचार्य के मतानुसार वह गोचर आत्मा है-उपाधिलक्षणो अविद्याकल्पितो भोक्ता- मनःशारीरिक आत्म, जो गलती से जीव को सच्ची आत्मा समझ लेता है। रामानुज की दृष्टि में यह वैयक्तिक आत्मा को सच्ची आत्मा समझ लेता है। रामानुज की दृष्टि में यह वैयक्तिक आत्मा जीवात्मा है; मध्व की दृष्टि से यह सर्वोच्च भगवान् विष्णु है। कर्ता कर्म के पांच कारणों में से एक है। सांक्ष्य-सिद्धान्त के अनुसार पुरुष या आत्मा केवल साक्षी है। यद्यपि, यदि बिलकुल ठीक-ठाक कहा जाए, तो आत्मा अकर्ता अर्थात् कर्म को न करने वाली है, फिर भी उसका साक्षी-रूप में रहना प्रकृति की गतिविधियां को प्रारम्भ कर देता है और इसलिए आत्मा को निर्धारक कारणों में सम्मिलित किया गया है। 15.शरीरवांमनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः। मनुष्य अपने शरीर, वाणी या मन द्वारा जो भी कोई उचित या अनुचित कर्म करता है, उसमें ये पांच उपकरण अवश्य होते हैं। 16.तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः। ऐसी दशा में जो विकृत मन वाला मनुष्य अपनी अप्रशिक्षित बुद्धि के कारण अपने-आप को एकमात्र कर्ता समझता है, वह सच्ची बात को नहीं देख रहा होता।कर्ता पांच उपकरणों में से एक है और इस प्रकार जब वह कर्ता को ही एकमात्र कारण मान लेता है, त बवह एक तथ्य को गलत समझ रहा होता है।शंकराचार्य ने व्याख्या इस प्रकार की है, ’’विशुद्ध आत्मा को कर्ता समझता है।’’ यदि वह विशुद्ध आत्मा पर कर्तृव्य का आरोप करता है, तो वह तथ्य को गलत समझता है। सामान्यता जीव को कर्ता समझा जाता है, परन्तु वह मानीवय कर्म के मुख्य निर्धारकों में से, जो सबके सब प्रकृति की उपज है, केवल एक है। जब अहंकार को अहंकाररूप में पहचान लिया जाता है, तब हम उसके बन्धनकारी प्रभाव से मुक्त हो जाते हैं और हम विश्वात्मा के विशालतर ज्ञान में जीवन-यापन करते हैं; और उस आत्मदर्शन में सब कर्म प्रकृति की उपज हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तुलना कीजिए: पूर्वजन्मकृतं कर्म तद् दैवमिति कथ्यते।- हितोपदेश।
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