भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 237

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-17
धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण
श्रद्धा के तीन प्रकार

   
15.अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाड्मयं तप उच्यते॥

ऐसे शब्द बोलना, जो दूसरों को बुरे न लगें, जो सत्य हों, जो प्रिय हों, जो हितकारी हों और नियमित रूप से वेदों का पाठ- यह वाणी का तप कहलाता है। तुलना कीजिए: ’’अप्रिय और हितकारी वचन का कहने वाला और सुनने वाला कठिनाई से ही मिलता है।’’[1]

16.मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्पो मानसमुच्यते॥

मन की प्रशान्तता, सौम्यता, मौन, आत्मसंयम और मन की पवित्रता- यह मानसिक तप कहलाता है।

17.श्रद्धया परया तप्तं तपस्त्रत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाड्क्ष्किृभर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते॥

यदि इस तीन प्रकार के तप को सन्तुलित मन वाले व्यक्तियों द्वारा फल की इच्छा रखे बिना, पूर्ण श्रद्धा के साथ किया जाए, तो वह सात्त्विक तप कहलाता है।

18.सत्कारमानपूजार्थ तपो दम्भेन चैव यत्‌।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्॥

जो तप सत्कार, सम्मान या प्रतिष्ठा पाने के लिए किया जाता है याप्रदर्शन के लिए किया जाता है, वह राजसिक तप कहलाता है, वह अस्थिर और अस्थायी होता है।

19.मूढ़ग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थ वा तत्तामसुदाहृतम्॥

जो तप मूर्खतापूर्ण दुराग्रह के साथ अपने-आप को कष्ट देकर या दूसरों को हानि पहुँचाने के लिए किया जाता है, वह तामसिक तप कहलाता है। इसके बाद दान के तीन प्रकार बताए गए हैं।

20.दातव्यमिति यद्दानं दीयतेअनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥

जो दान ऐसे व्यक्ति को, जिससे किसी प्रतिफल की आशा नहीं है, इस भावना से दिया जाता है कि दान देना हमारा कर्तव्य है, और जो उचित स्थान में, उचित समय पर और योग्य व्यक्ति को दिया जाता है, वह दान सात्त्विक माना जाता है। इस प्रकार का दान पूर्ण आत्मसमर्पण की ओर ले जाता है।गरीबों को दिया गया दान केवल गरीबों की ही नहीं, अपितु दान देने वालों की भी सहायता करता है। जो देता है, वह पाता है।

21.यत्तु प्रत्युपकारार्थ फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं-राजसं स्मृतम्॥

परन्तु जो दान किसी प्रतिफल की आशा से या भविष्य में किसी लाभ की आशा से दिया जाता है और जिस दान को देने में क्लेश होता है, उसे राजसिक माना जाता है।

22.अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥

जो दान गलत स्थान पर या गलत समय पर या अयोग्य व्यक्ति को बिनाउचित समारोह के या तिरस्कारपूर्वक दिया जाता है, वह तामसिक दान कहा जाताहै।

रहस्यमय ध्वनि ’ओम् तत् सत्’

23.ओंतत्सदिति निर्देशो ब्रह्माणस्त्रिविधिः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥

’ओम् तत् सत्’ यह ब्रह्म का तीन प्रकार का प्रतीक समझा जाता है। प्राचीन काल में इसके द्वारा ब्राह्मण, वेद और यज्ञों का विधान किया गया था। देखिए 3, 10। ’ओम्’ परम सर्वोच्चता का सूचक है; ’तत्’ सार्वभौमता का और ’सत्’ ब्रह्म की वास्तविकता का सूचक है। तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है, ’’सच्च तच्चाभवत्’’[2]। यह सतृ (जो अस्तित्वमान है) बन गया और तत् (जो परे है) बन गया। वह ब्रह्म ब्रह्माण्डीय संसार भी है और उससे परे भी है। यह चेतना की तीन दशाओं का प्रतीक है- जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति- जो लोकातीत दशा (तुरीयः चैथी) की ओर ले जाती हैं। देखिए माण्डूक्य उपनिषद्। साथ ही देखिए भगवद्गीता 7, 8 और 8, 13।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. .अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता हि दुर्लभः।- महाभारत, शान्तिपर्व, 63,17 यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारे होंठ त्रुटियों से बचे रहें, तो सावधानी से पांच बातों का ध्यान रखो: किस विषय में तुम्हें बोलना है, किससे तुम्हें बोलना है, और कैसे, और कब, और कहाँ बोलना है। - ’अनसैन्सर्ड रिकलैक्शन्स’ (देखिए थर्लबी हाल, लेखक, डब्ल्यू0 ई0 नौरिस, खण्ड 1, पृ. 35)
  2. 2, 6

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परिचय 1
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4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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