भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-14
सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक सर्वोच्च ज्ञान 5.सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः। हे महाबाहु (अर्जुन), अच्छाई (सत्त्व), आवेश (रजस्) और निष्क्रियता (तमस्), ये तीनों गुण प्रकृति से उत्पन्न हुए हैं और ये अनश्वर शरीरी (आत्मा) को शरीर में बांधकर रखते हैं अनश्वर आत्मा को जन्म और मरण के चक्र में फंसा हुआ प्रतीत कराने वाली शक्ति गुणों की शक्ति है। वे गुण ’प्रकृति के आद्यघटक हैं और सब तत्त्वों के आधार हैं। इसलिए उन्हें इन तत्त्वों में विद्यमान गुण नहीं कहा जा सकता।’- आनन्दगिरि। उन्हें गुण इसलिए कहा जाता है, क्योंकि उनकी उत्पत्ति सांख्य के पुरुष या गीता के क्षेत्रज्ञ पर आश्रित है। गुण प्रकृति की तीन प्रवृत्तियां हैं या वे तीन धागे हैं, जिनसे प्रकृति की रस्सी बटी गई है। सत्त्व चेतना के प्रकाश को प्रतिध्वनित करता है और उसके द्वारा आलोकित होता है और इसलिए उसकी विशेषता चमक (प्रकाश) है। रजस् में बहिर्मुख गतिविधि (प्रवृत्ति) है और तमस् की विशेषता जड़ता (अप्रवृत्ति) और लापरवाही (प्रमाद) है।[1] सत्त्व पूर्ण विशुद्धता और द्युति है, जबकि रजस् अशुद्धता है, जो कि गतिविधि की ओर ले जाती है और तमस् अन्धकार एवं जड़ता है। क्यों कि गीता में गुणों का मुख्य रूप से व्यवहार नैतिक अर्थ में किया गया है, इसलिए हमने सत्त्व के लिए अच्छाई, रजस् के लिए आवेश और तमस् के लिए निष्क्रयता शब्द का प्रयोग किया है। 6.तत्र सूूत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्। इनमें से अच्छाई (सत्त्व) विशुद्ध होने के कारण प्रकाश और स्वास्थ्य का कारण बनती है। हे निष्कलंक अर्जुन, यह सत्त्व-गुण आनन्द और ज्ञान के प्रति आसिक्ति के कारण मनुष्य को बाधंता है। यहाँ ज्ञान का अर्थ निम्नतर बौद्धिक ज्ञान है। सत्त्व हमें अहंभाव से मुक्ति नहीं दिलाता। यह भी इच्छा उत्पन्न करता है, भले ही वह इच्छा अच्छी वस्तुओं के लिए हो। आत्मा, जो कि सब आसक्तियों से मुक्त है, यहाँ आनन्द और ज्ञान के प्रति आसक्त रहती है। यदि हम अहंभाव के साथ सोचना और कामना करना बन्द न करें, तो हम मुक्त नहीं हैं। ज्ञान का सम्बन्ध बुद्धि से है, जो कि प्रकृति की एक उपज है और उसकी विशुद्ध चेतना से भिन्न समझा जाना चाहिए, जो कि आत्मा का सार-तत्त्व है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11 और 22, 12 और 22, 13
- ↑ ईसाइयाह से तुलना कीजिए, जो मसीयाह के विषय में इस प्रकार कहता हैः ’’उसने हमारे कष्टों को सहा और हमारे दुःखों को झेला। वह हमारे अपराधों के लिए आहत हुआ। हमारी शान्ति के लिए दंड उसे सहना पड़ा और उसके द्वारा खाए कोड़ों से हम स्वस्थ होते हैं।’’ (53, 45)
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