भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 220

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-13
शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है, और इन दोनों में अन्तर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ

   

मुक्ति के विभिन्न मार्ग

24.ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥

कुछ लोग आत्मा द्वारा आत्मा में आत्मा को उपासना (ध्यान) द्वारा देखते हैं; कुछ अन्य लोग ज्ञानमार्ग द्वारा और कुछ अन्य लोग कर्ममार्ग द्वारा इस प्रकार आत्मा का दर्शन करते हैं।यहाँ सांख्य शब्द का प्रयोग ज्ञान के लिए हुआ है।

25.अन्ये त्वेवमजान्तः श्रृत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्यु श्रृतिपरायणाः॥

परन्तु कुछ अन्य लोग इस बात को (योग के इन मार्गों को) न जानते हुए अन्य लोगों से सुनकर उपासना करते हैं; और वे भी कुछ उन्होंने सुना है, उस पर आस्था रखते हुए मृत्यु के परे पहुँच जाते हैं। जो लोग गुरुओं[1] की प्रामाणिकता पर भरोसा रखते हैं और उनके उपदेश के अनुसार उपासना करते हैं, उनके हृदय भी परमात्मा की दया के प्रति खुल जाते हैं और इस प्रकार वे शाश्वत जीवन को प्राप्त कर लेते हैं।

'26.यावत्सज्जायते किच्चित्सत्त्वं स्थावरजगंमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ॥

हे भरतों में श्रेष्ठ (अर्जुन), तू इस बात को समझ ले कि जो कोई भी स्थावर या जंगम वस्तु उत्पन्न हुई है, वह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग द्वारा ही उत्पन्न हुई है।सम्पूर्ण जीवन आत्म और अनात्म के मध्य होने वाला व्यापार है। शंकराचार्य के मतानुसार इन दोनों का संयोग अध्यास के ढंग का है, जिसमें एक को गलती से दूसरा समझ लिया जाता है। जब यह भ्रम दूर हो जाता है, तब बन्धन समाप्त हो जाता है।

27.समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥

जो व्यक्ति परमात्मा को सब वस्तुओं में समान रूप से निवास करता हुआ और उन वस्तुओं के नष्ट होने पर भी उसे नष्ट न होता हुआ देखता है,वही वस्तुतः देखता है। जो कोई सब वस्तुओं में विश्वात्मा को देखता है, वही सचमुच देखता है, और अपने-आप भी सार्वभौम बन जाता है।’जब वस्तुएं नष्ट होती हैं, तब भी वह कभी नष्ट नहीं होता।’ यदि सब वस्तुएं विकासात्मक पुष्टि की एक अविराम दशा में विद्यमान हैं, तब परमात्मा परिवर्तनहीन नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए, बर्गसन परमात्मा को संसार में पूर्णतया अन्तव्र्यापी मानता है, जो कि संसार के परिवर्तनों के साथ परिवर्तित हेाता रहता है। विकासशील परमात्मा का, जिसकी कि विश्व के विकास की प्रक्रिया के एक अंश-रूप में कल्पना की गई है, तब अस्तित्व ही समाप्त हो गाएगा, जब विश्व की गति समाप्त हो गाएगी, तापगतिविज्ञान (थर्मोडाइनैमिक्स) के दूसरे नियम में एक घटनाहीन निष्प्रवाहता और पूर्ण विश्राम की दशा ध्वनित की गई है। एक विकसमान या वर्धमान परमात्मा संसार का स्रष्टा या उद्धारकर्ता नहीं हो सकता। वह धार्मिक भावनाओं का समुचित विषय नहीं है। इस श्लोक में गीता हमें विश्वास दिलाती है कि जब संसार का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, तब भी परमात्मा जीवित रहता है और बना रहता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रुतिपरायणाः, केवलपरोपदेशप्रमाणाः स्वयं विवेकरहिताः। - शंकराचार्य।

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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