भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 219

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-13
शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है, और इन दोनों में अन्तर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ

   

प्रकृति और आत्मा

19.प्रकृति पुरुषं चैव विद्धच्यनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्॥

तू इस बात को समझ ले कि प्रकृति और पुरुष (आत्मा) दोनों अनादि (आरम्भहीन) हैं; और इस बात को भी समझ ले कि रूप (विकार) और गुण प्रकृति से ही उत्पन्न हुए हैं।जिस प्रकार ईश्वर नित्य है, उसी प्रकार उसकी प्रकृतियां भी नित्य हैं। [1] दो प्रकृतियों, प्रकृति और आत्मा, पर अपने अधिकार के द्वारा ईश्वर विश्व की सृष्टि, स्थिति और प्रलय करता है। इस स्थान पर वर्णित पुरुष सांख्य का बहुगुणात्मक पुरुष नहीं है, अपितु क्षेत्रज्ञ है, जो सब क्षेत्रों में एक ही है। गीता प्रकृति और पुरुष को दो स्वतन्त्र मूल तत्त्व नहीं मानती, जैसा कि सांख्य मानता है, अपितु उन दोनों को एक और उसी ईश्वर के निकृष्ट और उत्कृष्ट रूप मानती है।

20.कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥

प्रकृति को कार्य, करण (साधन) और कर्तृत्व (अभिकर्ता होना) का कारण कहा जाता है और आत्मा को सुख और दुःख के अनुभव के सम्बन्ध में कारण कहा जाता है। ’कार्यकरणकर्तृत्वे’ के स्थान पर एक और पाठ है ’कार्यकारणकर्तृत्पे’। देखिए फ्रैंकलिन ऐजर्टन: भगवद्गीता खण्ड 1, पृ0 187 पर टिप्पणी। शरीर और इन्द्रियां प्रकृति द्वारा उत्पन्न की जाती हैं और पुरुष द्वारा सुख और दुःख का अनुभव कुछ निश्चित सीमाओं के अधीन है। आत्मा का परमानन्दपूर्ण प्रभाव वस्तु- रूपात्मक प्रकृति के साथ एकरूपता के कारण सुख और दुःख से कलंकित (मलिन) हो जाता है।

21.पुरुषःप्रकृतिस्थो हि भुड़क्ते प्रकृतिजान् गुणान्।
कारणं गुणसगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥

प्रकृति में स्थित आत्मा प्रकृति से उत्पन्न गुणों का उपभोग करती है। इन गुणों के साथ असाक्ति अच्छी और बुरी योनियों में उसके जन्म का कारण बनती है।

22.उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः॥

शरीर में स्थित परमेश्वर साक्षी, अनुमति देने वाला, संभालने वाला, उपभोग करने वाला, महान् प्रभु और परमात्मा कहलाता है।यहाँ परम आत्मा उस मनःशारीरिक व्यक्ति से भिन्न है, जो प्रकृति की गतिविधियों में फंसे रहने के पृथक् करने वाली चेतना से ऊपर उठकर अमर आत्मा बन जाता है। गीता में क्षेत्रज्ञ और परमेश्वर में कोई भेद नहीं किया गया है।[2]

23.य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते॥

जो कोई इस प्रकार गुणों के साथ-साथ आत्मा (पुरुष) और प्रकृति को जान लेता है, वह भले ही किसी प्रकार भी कार्य क्यों न करता रहे, फिर जन्म नहीं लेता। सर्वथा वर्तमानोऽपि: चाहे वह सब प्रकार काम करता है; चाहे वह जीवन की किसी भी दशा में क्यों न हो। - रामानुज।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नित्येश्वरत्वाद् ईश्वरस्य, तत् प्रकृत्योरपि युक्तं नित्यत्वेन भवितुम्। - शंकराचार्य
  2. क्षत्रज्ञश्वरयोर्भेदानभ्युपगमाद् गीताशास्त्रे। - शंकराचार्य।

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परिचय 1
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3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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