भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-12
व्यक्तिक भगवान् की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा अधिक अच्छी है 13.अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च। जो व्यक्ति किसी प्राणी से द्वेष नहीं करता, जो सबका मित्र है और सबके प्रति सहानुभूतिपूर्ण है, जो अहंकार और ममता की भावना से रहित है, जो सुख और दुःख में समान रहता है और जो धैर्यवान् है; 14.संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः। जो योगी है, सदा सन्तुष्ट रहता है, अपने-आप को वश में रखता है, जो दृढ़-निश्चयी है, जिसने अपने मन और बुद्धि को मुझे अर्पित कर दिया है; मेरा वह भक्त मुझे प्रिय है।इन श्लोंकों में गीता में सच्चे भक्त के गुणों, आत्मा की स्वतन्त्रता, सबके प्रति मित्रभाव, धैर्य और प्रशान्तता का उल्लेख किया गया है। 15.यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः। जिससे संसार नहीं घबराता और जो संसार से नहीं घबराता और जो आनन्द और क्रोध से, भय और उद्वेग से रहित है, वह भी मुझे प्रिय है। वह किसी के लिए कष्ट का कारण नहीं बनता; और न कोई उसे कष्ट का अनुभव करा सकता है। 16.अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः। जो किसी से कोई आशा नहीं रखता; जो शुद्ध है़; कर्म में कुशल है; जो उदासीन (निरपेक्ष) है और जिसे कोई कष्ट नहीं; जिसने (कर्म के सम्बन्ध में) सब ग्राहकों को त्याग दिया है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है।वह अपने सब कर्मों के फलों का त्याग कर देता है। उसके काम कुशलतापूर्ण, दक्ष, शुद्ध और वासनारहित होते हैं। वह अपने -आप को कल्पना या स्वप्नों में नहीं खो बैठता, अपितु संसार में अपने मार्ग को जानता है। 17.यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काड्क्षति। जो व्यक्ति न प्रसन्न होता है, न द्वेष करता है, न दुःख मानता है, न इच्छा करता है और जिसने भले और बुरे दोनों का परित्याग कर दिया है और जो इस प्रकार मेरी भक्ति करता है, वह मुझे प्रिय है। 18.समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः। जो शत्रु और मित्र दोनों के साथ एक-साथ बर्ताव करता है; जो मान और अपमान को समान दृष्टि से देखता है; जो सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख में एक जैसा रहता है और जो आसक्ति से रहित है; समः शत्रौ च मित्रे च। ईसा के तुलना कीजिए: ’’वह अपने सूर्य को बुरे और भले दोनों पर उदित करता है और वर्षा को न्यायी और अन्यायी दोनों पर बरसाता है।’’[1] 19.तुल्यनिन्दास्तुतिर्मानी संतुष्टो येन केनपचित्। जो निन्दा और प्रशंसा को एक समान समझता है; जो मौन रहता है (वाणी को अपने वश में रखता है) और जो कुछ मिल जाए, उसी से सन्तुष्ट रहता है; जिसका कोई नियत निवास-स्थान नहीं है; जिसकी बुद्धि स्थिर है और जो मुझमें भक्ति रखता है, वह मुझे प्रिय है।अनिकेतः: जिसका स्थिर घर न हो, गुहहीन। यद्यपि वह सब सामाजिक कर्त्तव्यों को पूरा करता है, फिर भी वह किसी एक परिवार या घर से बंधकर नहीं रहता। क्योंकि ये सब आत्माएं किसी अमुक परिवार या अमुक सामाजिक समूह के लिए नहीं जीतीं, अपितु समूचे रूप में मानव - जाति के लिए जीती हैं, इसलिए उनका कोई नियत घर नहीं होता। उनकी अन्तःप्रेरणा उन्हें जहाँ भी ले जाए, वे वहीं जाने को स्वतन्त्र होती हैं। वे किसी स्थान से नहीं बंधी होतीं और न किसी अपरिवर्तनीय प्राधिकार की रक्षा करने के लिए ही बाधित होती हैं। उन्हें सदा समूचे रूप में मानवता के कल्याण का ध्यान रहता है। ये सन्यांसी किसी भी सामाजिक सामाजिक समूह में प्रकट हो सकत हैं। महाभारत से तुलना कीजिएः ’’जो व्यक्ति जो कुछ मिल जाएं, वही पहन लेता है; जो कुछ मिल जाए, उसी से पेट भर लेता है; जहाँ जगह मिल जाए, वहीं सो जाता है; उसे देवता लोग ब्राह्म्ण कहते हैं।’’[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मैथ्यू 5, 45
- ↑ येनकेनचिदाच्छन्नो येनकेनचिदाशितः। यत्र क्वचन शायी स्यात् तं देवाः ब्राह्मणं विदुः॥ - शान्तिपर्व 245, 12 साथ ही देखिए विष्णुपुराण, 3, 7, 20: न चलति निजवर्णधर्मतो यः, सममतिरात्मसुहृद्विपक्षपक्षे न हरति न च हन्ति किज्चिदुच्चैः, सितमनसं तमवेहि विष्णुभक्तम्॥
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