भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 208

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

Prev.png
अध्याय-11
भगवान् का दिव्य रूपान्तर
अर्जुन भगवान् के सार्वभौमिक (विश्व) रूप को देखना चाहता है

   
41.सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं,
हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं,
मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥

तेरी इस महिमा के तथ्य को न जानते हुए और यह समझकर कि तू मेरा साथी है, मैंने अपनी लापरवाही से या प्रेम के कारण अविवेकपूर्वक तुझे जो ’हे कृष्ण, हे यादव, हे मित्र’ आदि कहा है;’तवेदम्’ की जगह एक और पाठ-भेद मिलता है ’तवेमम्’।

42.यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि,
विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं,
तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम॥

और कभी खेल में, बिस्तर पर लेटे हुए या बैठे हुए या भोजन के समय अकेले में या अन्य लोगों के सामने हंसी-मजाक में मैंने जो तेरे प्रति असम्मान प्रकट किया है, उसके लिए हे अच्युत (अपने स्थान से विचलित न होने वाले), और हे अप्रमेय (अपमाप), मैं तुझसे क्षमा की प्रार्थना करता हूँ।परमात्मा का दर्शन भक्त में अपनी अपवित्रता और पाप की एक गहरी अनुभूति उत्पन्न कर देता है। जब ईसाइयाह ने प्रभु का एक ऊंचे और ऊपर उठे हुए सिंहासन पर बैठे देखा तो उसने कहा: ’’मुझे धिक्कार है। मैं बर्बाद हो गया, क्यों कि मेरे ओठ अस्वच्छ हैं’ ’ ’ क्यां कि मेरी आंखों ने उस राजा को देखा है, जो देवदूतों का राजा है। ’’ (6, 1, 5)।

43.पितासि लोकस्य चराचरस्य,
त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो,
लेकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव॥

तू इस सारे चराचर जगत् का पिता है। तू इस संसार का पूजनीय है और आदरणीय गुरु है। हे अनुपम महिमा वाले, तीनों लोकों में कोई तेरे समान ही नहीं, तो फिर कोई तुझसे अधिक तो हो ही किस प्रकार सकता है।

44.तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं,
प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः,
प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्।

इसलिए प्रणाम करके और अपने शरीर को तेरे सम्मुख साष्टांग झुकाकर मैं तुझ आराधनीय प्रभु को प्रसन्न करना चाहता हूँ। हे देव, तू मेरे व्यवहार को उसी प्रकार क्षमा कर, जैसे पिता पुत्र के, या मित्र मित्र के या प्रेमी अपने प्रिय के व्यवहार को सहन करता है।भगवान् को एक लोकातीत रहस्य के रूप में नहीं समझना है, अपितु अपने साथ घनिष्ठ रूप में भी समझना है; वैसा ही घनिष्ठ, जैसा कि पिता अपने पुत्र के साथ होता है या मित्र अपने मित्र के साथ होता है या प्रेमी अपने प्रिय के साथ होता है। ये मानवीय सम्बन्ध परमात्मा में अपनी पूर्णतम अभिव्यक्ति को प्राप्त होते हैं और आगे चलकर वैष्णव-साहित्य में इन विचारों का और अधिक पूर्ण रूप में उपयोग किया गया है।पिता के रूप में परमात्मा हिन्दुओं के लिए एक सुपरिचित धारणा है। ऋग्वेद में कहा गया है: ’’तू हमारे लिए उसी प्रकार सुलभ बन जा, जिस प्रकार पिता पुत्र के लिए होता है। हे स्वतः देदीप्यमान प्रभु, तू हमारे साथ रह और अपने आशीर्वाद हमें दे।’’[1] फिर, यजुर्वेद में कहा गया है: ’’हे प्रभु, तू हमारा पिता है; तू पिता की ही भाँति हमे शिक्षा दे।’’[2] ओल्ड टेस्टामेंट’ में भी पिता की कल्पना का उपयोग किया गया है। ’’जिस प्रकार पिता अपने बच्चों पर दया करता है, उसी प्रकार परमात्मा उन पर दया करता है, जो उससे डरते हैं।’’[3]पिता के रूप में परमात्मा का विचार ईसा की शिक्षाओं की केन्द्रीय धारणा बन गया है।


Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1, 1, 9
  2. 37, 20 2
  3. 3साम 103, 13; साथ ही देखिए 68, 5

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः