भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 2

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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1.इस ग्रन्थ का महत्त्व

आत्मा के सत्यों को केवल वे लोग ही पूरी तरह समझ सकते हैं, जो कठोर अनुशासन द्वारा उन्हें ग्रहण करने के लिए अपने-आप को तैयार करते हैं। आत्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें अपने मन को सब प्रकार के विक्षेपों से रहित करना होगा और हृदय को सब प्रकार की भ्रष्टता से स्वच्छ करना होगा।[1] फिर, सत्य के ज्ञान का परिणाम जीवन का पुनर्नवीकरण होता है। आत्मजगत जीवन के जगत से बिल्कुल अलग-थलग नहीं है। मनुष्य को ब्राह्य लालसाओं और आन्तरिक गुणों में विभक्त कर देना मानवीय जीवन की अखंडता को खंडित कर देना है। ज्ञानवान आत्मा ईश्वर के राज्य के एक सदस्य के रूप में कार्य करती है। वह जिस संसार को स्पर्श करती है, उस पर प्रभाव डालती है। और दूसरों के लिए उद्धारक बन जाती है।[2]वास्तविकता (ब्रह्म) के दो प्रकार, एक अनुभवातीत (लोकोत्तर) और दूसरा अनुभवगम्य (लौकिक), एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं। गीता के प्रारम्भिक भाग में मानवीय कर्म की समस्या का प्रश्न उठाया गया है। हम किस प्रकार उच्चतम आत्मा में निवास कर सकते हैं और फिर भी संसार में काम करते रह सकते हैं? इसका जो उत्तर दिया गया है, वह हिन्दू धर्म का परम्परागत उत्तर है। यद्यपि यहाँ इसे एक नये सन्दर्भ के साथ प्रस्तुत किया गया है।
अधिकृत पदसंज्ञा[3] की दृष्टि से गीता को उपनिषद कहा जाता है, क्योंकि इसकी मुख्य प्रेरणा धर्म ग्रन्थों के उस महत्त्वपूर्ण समूह से ली गई है, जिसे उपनिषद कहा जाता है। यद्यपि गीता हमें प्रभावपूर्ण और गम्भीर सत्य का दर्शन कराती है, यद्यपि यह मनुष्य के मन के लिए नये मार्ग खोल देती है, फिर भी यह उन मान्यताओं को स्वीकार करती है, जो अतीत की पीढ़ियों की परम्परा का एक अंग हैं और जो उस भाषा में जमी हुई हैं, जो गीता में प्रयुक्त की गई है। यह उन विचारों और अनुभूतियों को मूर्तिमान और केन्द्रित कर देती है, जो उस काल के विचारशील लोगों में विकसित हो रही थी। इस भ्रातृघाती संघर्ष को उपनिषदों के प्राचीन ज्ञान, प्रज्ञा पुराणी पर आधारित एक आध्यात्मिक सन्देश के विकास के लिए अवसर बना लिया गया है।[4]

उन अनेक तत्त्वों को, जो गीता की रचना के काल में हिन्दू धर्म के अन्दर एक-दूसरे से होड़ करने में हुटे हुए थे, इसमे एक जगह ले आया गया है और उन्हें एक उन्मुक्त और विशाल, सूक्ष्म और गम्भीर सर्वांग-सम्पूर्ण समन्वय में मिलाकर एक कर दिया गया है। इसमें गुरु ने विभिन्न विचारधाराओं को, वैदिक बलिदान की पूजा-पद्धति को, उपनिषदों की लोकातीत ब्रह्म की शिक्षा को, भागवत के ईश्वरवाद और करुणा को, सांख्य के अद्वैतवाद को और योग की ध्यान-पद्धति को परिष्कृत किया है और उनमें आपस में मेल बिठाया है। उसने हिन्दू-जीवन और विचार के इन सब जीवित तत्त्वों को एक सुगठित एकता में गूंथ दिया है। उसने निषेध की नहीं अपितु अर्थावबोध की पद्धति को अपनाया है और यह दिखा दिया है कि किस प्रकार वे विभिन्न विचारधाराएं एक ही उद्देश्य तक जा पहुँचती हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तुलना कीजिएः ज्योतिरात्मनि नान्यत्र समं तत्सर्वजन्तुषु। स्वयं च शक्यते द्रष्टुं सुसमाहितचेतसा॥ "परमात्मा की ज्योति आत्मा में रहती है, अन्यत्र कहीं नहीं। यह सब प्राणियों में समान रूप से चमकती है और इसे अपने मन को समाधि में शान्त करके स्वयं देखा जा सकता है।"
  2. 4, 35
  3. पुष्पिका से तुलना कीजिएः भगवद्गीतासु उपनिषत्सु।
  4. ‘वैष्णवीय तन्त्रसार’ के एक लोकप्रिय श्लोक में यह बात कही गई है कि गीता उपनिषदों की मूल शिक्षाओं को ही नये रूप में प्रस्तुत करती है। उपनिषदें गौएं हैं। ग्वाले का पुत्र कृष्ण दूध दुहने वाला है। अर्जुन बछड़ा है। बुद्धिमान मनुष्य पीने वाला है और अमृतरूपी गीता बढ़िया दूध है।

    सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।
    पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्॥

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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