भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-10
परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है परन्तु हे अर्जुन, तुझे इस विस्त्रृत ज्ञान की क्या आवश्यकता है? मैं इस सम्पूर्ण विश्व को अपने जरा-से अंश द्वारा व्याप्त करके इसे संभाले रहता हूँ। एकांशेन: एक अंश द्वारा। इसका यह अर्थ नहीं हैं कि ब्रह्म की एकता अनेक अंशों में खण्डित हो जाती है। यह ब्रह्माण्ड असीम ब्रह्म का एक आंशिक प्रकटन (अभिव्यक्ति) है और यह उसके देदीपयमान प्रकाश की एक किरण से प्रकाशित है।[1] भगवान् का लोकातीत प्रकाश इस ब्रह्माण्ड से परे और देश तथा काल से परे निवास करता है। इति ... विभूति योग ो नाम दशमोऽध्यायः। यह है ’विभूति योग ’ नामक दसवां अध्याय।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऋग्वेद से तुलना कीजिए: ’पादो अस्य विश्वा भूतानि त्रिपाद् अस्यामृतं दिवि। 10, 90,3। पुरुषसूक्त में कहा गया है कि यह तो केवल उसकी महिमा का वर्णन है, स्वयं पुरुष तो इसकी अपेक्षा कहीं अधिक बड़ा हैं साथ ही देखिए छान्दोग्य उपनिषद्, 3, 12, 6 और मैत्रायणी उपनिषद्, 6, 4। 4, 7 पर टिप्पणी करते हुए अभिनवगुप्त ने, जो ’तदात्मानम्’ के बजाय ’तदात्मांशम्’ पाठ मानता है, लिखा है: श्री भगवान् किस पूर्णषाड्गुण्त्वात् शरीर सम्पर्क मात्ररहितोअपि स्थितिकारित्वात् कारुणिकतया आत्मांश सृजति; आत्मा पूर्णषाड़गुण्य अंशः अपाकारकत्वेन अप्रधानभूतो यत्र तद् आत्मांश शरीरं गृहृाति इत्यर्थः।
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