भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 172

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

Prev.png
अध्याय-7
ईश्वर और जगत
ईश्वर प्रकृति और आत्मा है

  
17.तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोअत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥

इन सबमें से ज्ञानी व्यक्ति, जो सदा ब्रह्म के साथ संयुक्त रहता है और जिसकी भक्ति अनन्य होती है, सर्वश्रेष्ठ है। उसे मैं बहुत अधिक प्रिय हूँ और वह मुझे बहुत अधिक प्रिय है।जब तक हम जिज्ञासु या साधक होते हैं, तब तक ही हम द्वैत के संसार में रहते हैं; परन्तु जब हमें ज्ञान प्राप्त हो जाता है, तब कोई द्वेत नहीं रहता। मुनि अपने-आप को उस एकात्मा के साथ संयुक्त कर देता है, जो सबमें है।

18.उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थितः ए हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥

यों तो ये सभी बहुत अच्छे हैं, परन्तु ज्ञानी को तो मैं समझता हूँ कि वह मैं ही हूं; क्यों कि पूरी तरह अपने-आप को योग में लगाकर वह केवल मुझमें ही स्थित हो जाता है, जो कि मैं सर्वोच्च लक्ष्य हूँ। उदारः सर्व एवैते: यों तो सभी बहुत अच्छे हैं। हम मानसिक कष्ट से बचने के लिए (आर्तः), व्यावहारिक लाभ प्राप्त करने के लिए (ज्ञानी) प्रार्थना करते हैं। ये सबके सब बहुत अच्छे हैं। यदि हम भौतिक वस्तुओं के लिए भी प्रार्थना करते हैं और प्रार्थना को एक औपचारिक दिनचर्या के रूप में बदल लेते हैं, या उसका उपयोग सौभाग्य लाने वाले जादू के रूप में करते हैं, तो भी हम धार्मिक भावना की वास्तविकता को मान रहे होते हैं। प्रार्थना मनुष्य का परमात्मा तक पहुँचने के लिए प्रयत्न है। इसमें यह मान लिया जाता है कि संसार में कोई ऐसी व्यापक शक्ति है, जो हमारी प्रार्थनाओं का उत्तर देती है। यदि हम कोई वस्तु मांगेंगे, तो वह हमें दे दी जाएगी। प्रार्थना के प्रयोग द्वारा हम अपनी चेतना में एक ऐसी ज्योति जगाते हैं, जो हमारे मूर्खतापूर्ण दम्भ, हमारे स्वार्थपूर्ण लोभ, हमारे भयों और आशाओं को स्पष्ट दिखा देती है। यह एक अखण्ड व्यक्तित्व, शरीर, मन और आत्मा की समस्वरता का निर्माण करने का साधन है। धीरे-धीरे हम अनुभव कर लेते हैं कि जीवन में सौभाग्य के लिए या परीक्षा में सफलता के लिए प्रार्थना करना अपने-आप को नीचा गिराने वाला काम है।
हम यह प्रार्थना करते हैं कि हम ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर सकें और अधिकारिक उस ब्रह्म के समान हो सकें। प्रार्थना जीवन का मार्ग है। धीरे-धीरे यह परमात्मा के सान्निध्य का अभ्यास बन जाती है। यह ज्ञान है, अखण्डित ज्ञान, दिव्य जीवन। जो ज्ञानी परमात्मा को उस रूप में जानता है, जिस रूप में कि वह वस्तुतः है, वह परमात्मा को, जो कुछ वह है, उसके लिए प्रेम करता है। वह ब्रह्म में वास करता है। परमात्मा उसे उसी प्रकार प्रिय होता है, जैसे कि वह परमात्मा को प्रिय होता है। पहले तीन प्रकार के भक्त अपने-अपने विचारों के अनुसार परमात्मा का उपयोग करने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु ज्ञानी तो परमात्मा के ही बन जाते हैं, जिससे कि वह अपनी इच्छा के अनुसार उनका उपयोग कर सकें; इसलिए वे उन सबमें श्रेष्ठ हैं। यह सम्भव है कि जब हम कठिन विपत्ति में हों, तब हम अपनी यन्त्रणा से छुटकारा पाने के लिए एकाग्रचित्तता और तीव्रता के साथ प्रार्थना करें। यदि इस प्रकार की प्रार्थना का उत्तर मिल जाए, तो यह परमात्मा के उस प्रयोजन को विफल कर देना होगा, जिसे कि अपने अन्धेपन के कारण हम देख पाने में असमर्थ हैं। परन्तु ज्ञानी का हृदय पवित्र होता है और उसमें परमात्मा की योजना को देखने के लिए एकाग्र संकल्प होता है और वह उस प्रयोजन की पूर्णता के लिए प्रार्थना करता है, ’’मेरी नहीं, तेरी इच्छा पूर्ण हो।’’


Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः