भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 159

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-6
सच्चा योग


योग के अभ्यास के लिए बताये गये गुणों की तुलना सुसमाचार (इंजील) के दरिद्रता, बेह्मचर्य और आज्ञापालन के उन आदेशों के साथ की जा सकती है, जिनके द्वारा हम संसार, शरीर और शैतान पर विजय प्राप्त करते हैं
सब विचारों को निश्चल कर देने की नकारात्मक प्रक्रिया का एक सकारात्मक पक्ष भी है, और वह है आत्मा में एकाग्रता। योगाभ्यास में ईश्वरप्रणिधान को भी एक उपाय बताया गया है। मन स्थिर हो जाता है, परन्तु वह रिक्त नहीं रहता, क्योंकि वह भगवान् में एकाग्र रहता है, मच्चितः मत्परः। केवल वही लोग वास्तविक (ब्रह्म) को देख सकते हैं, जिनकी दृष्टि एकाग्र हो। आत्मिक जीवन कोई प्रार्थना या याचना नहीं है। यह तो प्रभूत भक्ति, मौन उपासना है। यह आत्मा की आन्तरिकतम गहराइयों तक, जो व्यक्तिक आत्मा को सीधा ब्रह्म-तत्त्व से सम्बन्धित करती हैं, पहुँचने के लिए चेतना का द्वार है। जो इस कला को सीखते हैं, उनके लिए किसी बाह्म सहायता, किसी धर्मसिद्धान्त में विश्वास या किसी कर्मकाण्ड में भाग लेने की आवश्यकता नहीं रहती। उन्हें सृजनात्मक दृष्टि प्राप्त हो जाती है, क्यों कि वे अनासक्ति के साथ तल्लीनता का मिश्रण करते हैं। वे संसार में कर्म करते हैं, परन्तु उनकी वासनाशून्य आत्मा की प्रशान्तता अक्षुब्ध रहती है। उनकी तुलना सरोवर के कमल से की जाती है, जो कि तूफान में भी अकम्पित ही बना रहता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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