भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 149

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

Prev.png
अध्याय-5
सच्चा संन्यास

  
19.इहैव तैर्जितः सर्गो येषां सास्म्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः॥

जिनका मन साम्यावस्था में स्थित हो गया है, उन्होंने यहीं (पृथ्वी पर ही) सृष्टि (संसार) को जीत लिया है। परमात्मा निर्दोष और सबमें समान है। इसलिए ये (व्यक्ति) परमात्मा में स्थित हैं।देखिए छान्दोग्य उपनिषद, 2, 23, 1।मुक्ति की दशा एक ऐसी दशा है, जिसे हम यहाँ पृथ्वी पर प्राप्त कर सकते हैं।

20.न प्रह्यष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः ॥

मनुष्य को चाहिए कि वह प्रिय वस्तु को पाकर आनन्द न मनाए और अप्रिय वस्तु पाकर दुःखी न हो। जो मनुष्य इस प्रकार स्थिर बुद्धि वाला हो जाता है। और किकर्तव्यविमूढ़ नहीं होता, वह ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित हो जाता है। ब्रह्मणि स्थितः: परमात्मा में स्थित। वह उसे पा लेता है, उस तक पहुँच जाता है, उसमें प्रविष्ट हो जाता है और भलीभाँति उसमें स्थित हो जाता है।

21.बाह्यस्पर्शेष्वस्क्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्ययोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥

जब आत्मा बाह्य स्पर्शों (विषयों या वस्तुओं ) में आसक्त नहीं रहती, तब मनुष्य को वह आनन्द होता है, जो आत्मा में है। ऐसा मनुष्य, जिसने अपने-आप को परमात्मा (ब्रह्म) के योग में लगाया हुआ है अक्षय सुख का उपयोग करता है।जो मनुष्य अपने-आप को इन्द्रियों के छायाभासों से मुक्त कर चुका है और जो शाश्वत ब्रह्म में जीता है, वह दिव्य सुख का उपयोग करता है।[1]

22.ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौप्तेय न तेषु रमते बुधः॥

(पदार्थों के साथ) संस्पर्श से उत्पन्न होने वाले सुख केवल दुःखों को जन्म देने वाले हैं। हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), उनका आरम्भ होता है और अन्त भी होता है। ज्ञानी मनुष्य को उनमें कोई आनन्द नहीं आता। देखिए, 2, 14 पर टिप्पणी। [2]


Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. . ब्रदर लारेंस से तुलना कीजिए: ’’मैं जानता हूँ कि इसका ठीक-ठीक अभ्यास करने के लिए हृदय को अन्य सब वस्तुओं से रिक्त होना चाहिए; क्यों कि परमात्मा केवल हृदय पर अधिकार करना चाहता है; और यदि वह हृदय अन्य सब वस्तुओं से रिक्त न हो, तो तो परमात्मा उस पर अधिकार नहीं कर सकता; और इसीलिए यदि उस हृदय को परमात्मा के लिए रिक्त न छोड़ दिया जाए, तो वह उसमें वह कार्य नहीं कर सकता, जो कि वह करता।’’-दि प्रैक्टिस आफ दि प्रॅजेण्ट आफ गाड।
  2. भागवत से तुलना कीजिएः सुखस्यानन्तरं दुःख दुःखस्यानन्तर सुखम्। चक्रवत परिवर्तेते सुखदुःखे निरन्तरम्॥

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः