भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 148

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-5
सच्चा संन्यास

  
18.विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥

पण्डित लोग सुशिक्षित और विनयशील ब्राह्मण को, गाय को, हाथी को या कुत्ते या चाण्डाल तक को समान दृष्टि से देखते हैं। विद्याविनयसम्पन्ने: अधिक अध्ययन से अधिक विनय आती है। ज्यों-ज्यों हमारा ज्ञान बढ़ता है, त्यों -त्यों हम चारों ओर से आवृत्त करने वाले अन्धकार को अधिक और अधिक अनुभव करने लगते हैं। जब हम दीपक जलाते हैं, तभी हमें पता चलता है कि सब ओर कितना अंधेरा हैं जो कुछ हम जानते हैं, वह उसकी तुलना में लगभग कुछ भी नहीं है, जो हम नहीं जानते हैं। [1]थोड़ा -सा ज्ञान हमें कट्टर सिद्धान्तवाद की ओर ले जाता है, थोड़ा -सा और ज्ञान हमें प्रश्नात्मकता की ओर, तथा थोड़ा-सा और अधिक ज्ञान हमें प्रार्थना की ओर ले जाता है। इसके अतिरिक्त विनय इस ज्ञान द्वारा उत्पन्न होती है तिक हम परमात्मा के प्रेम द्वारा ही अस्तित्वमय बने हुए हैं। सब कालों के महान् विचारक परम धार्मिक व्यक्ति थे। विनयः नम्रता विनम्रता, जो संस्कार या अनुशासन का परिणाम है। बौद्ध ’त्रिपिटक’ का पहला खण्ड विनय अर्थात् अनुशासन कहलाता है। विनय अभिमान या अंहकार का विलोम हैं। अमानवीय तत्त्वों पर निर्भयता को हृदयंगम कर लेने से ब्रह्माण्डीय धर्मनिष्ठा उत्पन्न होती है। सच्चे विद्वान् लोग विनम्र होते हैं। समदर्शिनः: समान दृष्टि से देखते हैं। शाश्वत तत्त्व सबमें, सब पशुओं में एक ही जैसा है। जैसा वह मनुष्यों में, विद्वान ब्राह्मणों में है, वैसा ही वह घृणित समझे जाने वाले चाण्डालों में है। ब्रह्मा की ज्योति सब शरीरों में निवास करती है ओर उस उन शरीरों के अन्तर का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, जिन्हें कि वह आलोकित करती है। भगवान् की सत्, चित् और आनन्द् की विशेषताएं सब विद्यमान वस्तुओं में वर्तमान हैं और अन्तर केवल उनके नामों और रूपों में अर्थात् उनके शरीरों में है।[2] जब हम वस्तुओं को उस अन्तिम वास्तविकता के दृष्टिकोण से देखते हैं जो सबमें विद्यमान है, तब हम ’समान दृष्टि से देखने लगते हैं।’[3] आधारभूत द्वैत आत्मा और प्रकृति का है, आत्मा और शरीर का नहीं। यह कर्ता और वस्तु के मध्य अन्तर है। प्रकृति वस्तु-रूपात्मकता का, विजातीयता का, निर्धारण-योग्यता का संसार है। उसमें हमें खनिज-पदार्थां, पौधों, पशुओं और मनुष्यों की पृथकता दिखाई पड़ती है, परन्तु उन सबमें एक आन्तरिक अवस्तु-रूपतामक सत्ता विद्यमान है। कर्ता, वास्तविकता (ब्रह्म), का उन सबमें निवास है। आधारभूत एकरूपता का यह प्रकथन अनुभवसिद्ध विविधता के साथ असंगत नहीं है। शंकराचार्य तक ने इस बात को स्वीकार किया है कि एक ही शाश्वत वास्तविकता अपने-आप को उच्चतर और उच्चतर रूपों में अभिव्यक्ति के उपरोत्तर सोपानों द्वारा प्रकट कर रही है। [4]अनुभवजन्य विविधता के कारण वह आधिदैविक वास्तविकता हमारी आंखों से ओझल न हो जानी चाहिए, जो सब प्राणियों में समान रूप से विद्यमान है। यह दृष्टिकोण हमें अपने साथी प्राणियों के प्रति दया और सहानुभूति का भाव रखने को प्रेरित करता है। ज्ञानी लोग सब प्राणियों में एक परमात्मा का दर्शन करते हैं और अपने अन्दर समचितता के गुण का विकास करते हैं, जो कि ब्रह्म का गुण है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महान् न्यूटन ने अत्यन्त सुपरिचित वाक्य से यह बात स्पष्ट हो जाती हैः ’’मैं नहीं जानता कि संसार को मैं कैसा दिखाई पड़ता हू; परन्तु अपने-आप में तो मुझे ऐसा लगता है कि मैं समुद्र के किनारे खेलते हुए एक बालक की तरह हूं, जो जब-तब चिकने पत्थरों की अपेक्षा अधिक सुन्दर दिखाई पड़ने वाली कौड़ियों को ढूंढ़ने में लग जाता है, जबकि सत्य का विशाल सागर मेरे सामने फैला हुआ है, जिसकी कि अब तक खोज ही नहीं की गई है। ’’ मैं यहाँ हेनरी एडमस का एक वाक्य उद्धतकर देना चाहता हूः ’’अन्ततोगत्वा मनुष्य बहुत ही कम जानता है और शायद किसी दिन वह अपने अज्ञान के विषय में इतना काफी कुछ जान पाए कि वह विनीत हो जाए और प्रार्थना करने लगे।’’
  2. अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चत्यंशपच्चकम्। आद्यं त्रयं ब्रह्मरूपं जगदू्रपं ततो द्वयम् ॥
  3. चराचरं जगद् ब्रह्मदुष्ट्श्चैव पश्चन्ति। - नीलकण्ठ ।
  4. . एकस्यापि कूटस्थस्य चित्ततारतम्यात् ज्ञानैश्वर्याणाम् अभिव्यक्तिः परेण परेण भूयसी भवति। ब्रह्मसूत्र का शांकरभाष्य 1, 3, 30

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5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
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9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
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15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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