भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-4
ज्ञानमार्ग इस प्रकार ब्रह्म के मुख में अनेक प्रकार के यज्ञ फैले पड़े हैं (अर्थात् परम ब्रह्म तक पहुँचने के साधन हैं)। तू उन सबको कर्म से उत्पन्न हुआ समझ और यह जान लेने के बाद तू मुक्त हो जाएगा। 33.श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप । हे शत्रुओं को सताने वाले (अर्जुन), भौतिक पदार्थां द्वारा किए जाने वाले यज्ञों की अपेक्षा ज्ञानमय यज्ञ अधिक अच्छा है, क्यों कि निरपवाद रूप से सब कर्म ज्ञान में जाकर समाप्त हो जाते हैं। लक्ष्य जीवन देने वाला ज्ञान है, जो हमें कर्म की स्वतंत्रता प्रदान करता है और कर्म के बन्धन से मुक्ति दिलाता है। 34.तद्विद्वि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उस ज्ञान को सविनय, आदर द्वारा, प्रश्नोत्तर द्वारा और सेवा द्वारा प्राप्त करो। तत्त्वदर्शी ज्ञानी लोग तुम्हें उस ज्ञान का उपदेश करेंगे। ज्ञानी लोग हमें सत्य का उपदेश तभी करेंगे, जबकि हम उनके पास सेवा की भावना और आदरपूर्वक जिज्ञासा के साथ जाएं। जब तक हम अपने अन्दर स्थित परमात्मा को अनुभव न कर लें, तब तक हमें उन लोगों की सलाह के अनुसार कार्य करना चाहिए, जिन्होंने परमात्मा का अनुभव प्राप्त कर लिया है। यदि हम केवल शस्त्रों में कहीं गई या गुरु द्वारा बताई गई बातों को बिना विचार किए, केवल विश्वास द्वारा मानते चले जाएं, तो उतने से काम नहीं चलेगा। तर्क को भी सन्तुष्ट किया जाना चाहिए। ’’जिस व्यक्ति को स्वयं व्यक्तिगत रूप से ज्ञान नहीं हुआ है, बल्कि जिसने केवल बहुत-सी बातों को सुन-भर लिया है, वह शास्त्रों के अर्थ को ठीक उसी प्रकार नहीं समझ सकता, जैसे चमचे को दाल के स्वाद का पता नहीं चलता है।’’[1]हमें गुरु के प्रति श्रद्धा की स्वतन्त्र परख और पूछताछ के अधिकतम अनियन्त्रित अधिकार के साथ सम्मिश्रण करना चाहिए। किसी बाह्य प्राधिकार के प्रति अन्ध-आज्ञापालक का खण्डन किया गया है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यस्य नास्ति निजा प्रज्ञा केवलं तु बहुश्रुतः। न स जानाति शास्त्रार्थ दर्वी सूपरसमिव ॥ - महाभारत, 2, 55।
- ↑ प्लेटो से तुलना कीजिएः ’’मनुष्य को तब तक धैर्यपूर्वक जुटे रहना चाहिए, जब तक कि उसे दो में से एक वस्तु प्राप्त न हो जाएः या तो वह सब वस्तुओं के विषय में सत्य की स्वयं खोज कर ले, या फिर उस सत्य को किसी अन्य व्यक्ति से सीख ले; यदि यह असम्भव हो, तो उसे सर्वोत्तम और अकाट्यतम मानवीय सिद्धान्तों को पकड़ लेना चाहिए और जीवन-सागर को पार करने के लिए उन्हीं को अपना बेड़ा बना लेना चाहिए।’’ - फ्रेडो, 85 प्लौटिनस से तुलना कीजिए: ’’वाद-विवाद द्वारा हम दर्शन प्राप्त करते हैं। जो लोग देखना चाहते हैं, उन्हें हम मार्ग दिखाते हैं। हमारा अध्यापन एक प्रकार का मार्गदर्शन है। देखना उसी का काम होना चाहिए, जिसने इस बात का वरण किया है।’’ - ऐनीड्स, 69, 4
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