भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 140

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-4
ज्ञानमार्ग

  
32.एवं बहुविधा यज्ञा विता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्य से॥

इस प्रकार ब्रह्म के मुख में अनेक प्रकार के यज्ञ फैले पड़े हैं (अर्थात् परम ब्रह्म तक पहुँचने के साधन हैं)। तू उन सबको कर्म से उत्पन्न हुआ समझ और यह जान लेने के बाद तू मुक्त हो जाएगा।

ज्ञान और कर्म

33.श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप ।
सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥

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हे शत्रुओं को सताने वाले (अर्जुन), भौतिक पदार्थां द्वारा किए जाने वाले यज्ञों की अपेक्षा ज्ञानमय यज्ञ अधिक अच्छा है, क्यों कि निरपवाद रूप से सब कर्म ज्ञान में जाकर समाप्त हो जाते हैं। लक्ष्य जीवन देने वाला ज्ञान है, जो हमें कर्म की स्वतंत्रता प्रदान करता है और कर्म के बन्धन से मुक्ति दिलाता है।

34.तद्विद्वि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
एवदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥

उस ज्ञान को सविनय, आदर द्वारा, प्रश्नोत्तर द्वारा और सेवा द्वारा प्राप्त करो। तत्त्वदर्शी ज्ञानी लोग तुम्हें उस ज्ञान का उपदेश करेंगे। ज्ञानी लोग हमें सत्य का उपदेश तभी करेंगे, जबकि हम उनके पास सेवा की भावना और आदरपूर्वक जिज्ञासा के साथ जाएं। जब तक हम अपने अन्दर स्थित परमात्मा को अनुभव न कर लें, तब तक हमें उन लोगों की सलाह के अनुसार कार्य करना चाहिए, जिन्होंने परमात्मा का अनुभव प्राप्त कर लिया है। यदि हम केवल शस्त्रों में कहीं गई या गुरु द्वारा बताई गई बातों को बिना विचार किए, केवल विश्वास द्वारा मानते चले जाएं, तो उतने से काम नहीं चलेगा। तर्क को भी सन्तुष्ट किया जाना चाहिए। ’’जिस व्यक्ति को स्वयं व्यक्तिगत रूप से ज्ञान नहीं हुआ है, बल्कि जिसने केवल बहुत-सी बातों को सुन-भर लिया है, वह शास्त्रों के अर्थ को ठीक उसी प्रकार नहीं समझ सकता, जैसे चमचे को दाल के स्वाद का पता नहीं चलता है।’’[1]हमें गुरु के प्रति श्रद्धा की स्वतन्त्र परख और पूछताछ के अधिकतम अनियन्त्रित अधिकार के साथ सम्मिश्रण करना चाहिए। किसी बाह्य प्राधिकार के प्रति अन्ध-आज्ञापालक का खण्डन किया गया है।
आजकल बहुत-से गुरु हैं, जो अपने अनुयायियों से कहते हैं कि वे उनके वचनों को बिना विचारे पालन करें। उनका यह विश्वास प्रतीत होता है कि आत्मा के जीवन के लिए बुद्धि की मृत्यु आवश्यक शर्त है। बहुत -से उनकी आध्यात्मिक शक्तियों के कारण उतना नहीं, जितना कि उनके एजेण्टों के प्रचार द्वारा और नवीनता, कुतूहल और उत्तेजना के प्रति मानवीय दुर्बलता के कारण। यह हिन्दुओं की उस परम्परा के प्रतिकूल है, जिसमें जिज्ञासा अर्थात् जांच-पड़ताल पर, मनन या चिन्तन, या गीता के शब्दों में, परिप्रश्न पर जोर दिया गया है। परन्तु केवल बौद्धिक ज्ञान से भी काम नहीं चलेगा। बुद्धि हमें केवल परब्रह्म की झलक, केवल आंशिक झांकी दिखा सकती है; परन्तु यह परब्रह्म की चेतना उत्पन्न नहीं कर सकती। हमें वैयक्तिक सम्पर्क स्थापित करने के लिए अपने सम्पूर्ण आन्तरिक अस्तित्व को खोल रखना होगा। शिष्य को आन्तरिक मार्ग पर चलना होगा। सर्वोच्च प्रामाणिकता आन्तरिक प्रकाश है, जिसका इच्छा के प्रलोभन के साथ घपला नहीं किया जाना चाहिए। सेवा और आत्मविलोप के गुणों द्वारा हम बाधा डालने वाले संस्कार को चूर-चूर कर देते हैं और ज्ञान के आलोक को अपने तक पहुँचने देते हैं। स्वयं उपलब्ध किया गया सत्य गुरु द्वारा सुझाए गए सत्य से भिन्न होता है।
अन्ततोगत्वा, जो कुछ शास्त्रों में प्रकट किया गया है (प्रणिपात-श्रवण), जो कुछ मन द्वारा विचारा गया है (परिप्रश्न-मनन) और जो कुछ सेवा और ध्यान द्वारा आत्मा से अनुभव किया गया है (सेवानिदिध्यासन) इन तीनों में ठीक मेल बैठना चाहिए।[2]हमें अतीत के महान् विचारकों के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ना चाहिए, उसके विषय में तर्क-वितर्क करना चाहिए, और अन्तर्दृष्टि द्वारा उनमें जो कुछ स्थायी मूल्य की वस्तु है, उसे हृदयंगम करना चाहिए। इस श्लोक में यह बताया गया है कि आध्यात्मिक जीवन में पहले श्रद्धा आती है, फिर ज्ञान और उसके बाद अनुभव आता है। जिन लोगों ने सत्य का अनुभव कर लिया है, उनसे आशा की जाती है कि वे हमें मार्ग दिखलाएंगे। जिन्होंने तत्त्व के दर्शन कर लिए हैं, उनका अपने अपेक्षाकृत कम भाग्यशाली बन्धुओं के प्रति कुछ कर्त्तव्य हो जाता है और वे उन्हें उस ज्ञान के आलोक को प्राप्त करने का मार्ग दिखाते हैं, जिस तक वे स्वयं पहुँच चुके हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यस्य नास्ति निजा प्रज्ञा केवलं तु बहुश्रुतः। न स जानाति शास्त्रार्थ दर्वी सूपरसमिव ॥ - महाभारत, 2, 55।
  2. प्लेटो से तुलना कीजिएः ’’मनुष्य को तब तक धैर्यपूर्वक जुटे रहना चाहिए, जब तक कि उसे दो में से एक वस्तु प्राप्त न हो जाएः या तो वह सब वस्तुओं के विषय में सत्य की स्वयं खोज कर ले, या फिर उस सत्य को किसी अन्य व्यक्ति से सीख ले; यदि यह असम्भव हो, तो उसे सर्वोत्तम और अकाट्यतम मानवीय सिद्धान्तों को पकड़ लेना चाहिए और जीवन-सागर को पार करने के लिए उन्हीं को अपना बेड़ा बना लेना चाहिए।’’ - फ्रेडो, 85 प्लौटिनस से तुलना कीजिए: ’’वाद-विवाद द्वारा हम दर्शन प्राप्त करते हैं। जो लोग देखना चाहते हैं, उन्हें हम मार्ग दिखाते हैं। हमारा अध्यापन एक प्रकार का मार्गदर्शन है। देखना उसी का काम होना चाहिए, जिसने इस बात का वरण किया है।’’ - ऐनीड्स, 69, 4

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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