भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-4
ज्ञानमार्ग 23.गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः । जिस मनुष्य की आसक्तियां समाप्त हो चुकी हैं, जो कर्म को यज्ञ समझकर करता है, उसका कर्म पूर्णतया विलीन हो जाता है। 24.ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्यग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । उसके लिए अर्पण करने का कार्य भी परमात्मा है, अर्पित की जाने वाली वस्तु भी परमात्मा है; परमात्मा द्वारा वह परमात्मा की अग्नि में अर्पित की जाती है। जो मनुष्य अपने कार्यों में परमात्मा का अनुभव करता है, वह परमात्मा को ही प्राप्त करता है। यहाँ वैदिक यज्ञ का विस्तृततर आध्यात्मिक रूप में निरूपण किया गया है। यद्यपि यज्ञ करने वाला कर्म अवश्य करता है, फिर भी वह उसके द्वारा बंधता नहीं है [1], क्यों कि उसके पार्थिव जीवन में एक शाश्वतता की भावना व्याप्त रहती है। [2] 25.दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युयासते । कुछ योगी देवताओं के लिए यज्ञ करते हैं, जबकि अन्य योगी ब्रह्म की अग्नि में यज्ञ द्वारा स्वयं यज्ञ को ही अर्पित कर देते हैं। शंकराचार्य ने इस श्लोक के उत्तरार्द्ध में यज्ञ की व्याख्या आत्मा के रूप में की है। ’’अन्य लोग अपने-अपको आत्मा के रूप में ब्रह्म की अग्नि में अर्पित कर देत हैं।’’[3] जो भगवान् की विविध रूपों में कल्पना करते हैं, वे उनसे कर्म की पवित्र विधियों को पूर्ण करके अनुकूल फल पाना चाहते हैं, जबकि अन्य लोग स्वयं भगवान् को ही अपने सब कर्म समर्पित कर देते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीधर से तुलना कीजिए: तदेवं परमेश्वरराराधनलक्षणं कर्म ज्ञानहेतुत्वेन बन्धकत्वाभावाद्क मैंव।
- ↑ तुलना कीजिए, मन्तिक उत् तैर। फिट्रज जेरल्ड कृत अंग्रेजी अनुवार।’’तुम सब हुए हो और तुमने देखा है, किया है और सोचा है, तुमने नहीं, लेकिन मैंने देखा है और मैं हुआ हूँ और मैने किया है.......... तीर्थ-यात्री, तीर्थ-’यात्रा ओर मार्ग, मैं स्वयं ही था, जो अपनी ओर जा रहा था; और तुम्हारा आगमन मेरे अपने द्वार पर मेरा ही आगमन था .......... आओ, तुम भटके हुए कणों, अपने केन्द्र की ओर खिंच आओ....... ओ किरणो, जो सुदूर अन्धकार में भटकती रही हो, लौट आओ और वापस अपने सूर्य में विलीन हो जाओ।’’ - आनन्द के कुमारस्वामी की पुस्तक हिन्दूइज्म एण्ड बुद्धिज्म (1943),पृ० 42
- ↑ नीलकण्ठ का कथन है: ’’सोपाधिक जीवं निरुषाधिकात्मरूपेण जुह्यति।’’
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