भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-4
ज्ञानमार्ग
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तुलना कीजिएः ’’उसके लिए सारी पूजा पवित्र थी, क्यों कि उसका विश्वास था कि निचले से निचले रूपों में, अज्ञानी से अज्ञानी और मूर्ख से मूर्ख पुजारियों में भी दिव्य भगवान् की सच्ची खोज करने का तत्त्व था; और इन लोगों में और बड़े-से-बडे़ शानदार कर्मकाण्डियों या उच्चतम दार्शनिक सुनिश्चितताओं के बीच इतना थोड़ा अन्तर है कि हम विश्वास कर सकते हैं कि स्वर्ग में रहने वाले सन्त उस अन्तर को देखकर मुस्कुराते-भर होंगे। ’’ ऐलिजाबैथ वाटरहाउस, थोट्स आफ ए टर्निशयरीः ऐवेलीन अण्डरहिल द्वारा लिखित ’वर्शिप’ (1937) में पृष्ठ 1 पर उद्धत।
- ↑ . हरिरूपी महादेवो लिगंरूपी जनार्दनः। ईषद्प्यन्तरं नास्ति मेदकृन्नरकं ब्रजेत् ॥ - बृहन्नारदीय। साथ ही मैत्रायणे उपनिषद् से तुलना कीजिए: स वा एष एकस्त्रिधाभूतः। साथी ही देखिए अथर्ववेद: एक ही ज्योति अपने-आप को विविध रूपों में प्रकट करती है, एकं ज्योतिर्बहुधाविभाति। 13, 3, 17
- ↑ यो वै विष्णुः स वै रुद्रो यो रुद्रः स पितामहः। एक मूर्तिस्त्रयो देवा रुद्रविष्णुपितामहाः ॥
- ↑ यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनः; बौद्धाः बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसका, सोअयं वो विद्धातु वाच्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ॥
- ↑ . क्रैस्त्वाः क्रीस्तुरिति क्रियापररताः अल्लेति माहम्मदाः। अबुलफजल ने अकबर के दीने-इलाही की भावना को इन शब्दों में प्रस्तुत किया हैः ’’ हे परमात्मा, मैं प्रत्येक मन्दिर में उन लोगों को देखता हू, जो तुझे ढूंढते हैं; और मैंने जिनती भी भाषाएं बोली जाती सुनी हैं, उन सबमें लोग तेरी स्तुति करते हैं। बहुदेववाद और इस्लाम तुझे खोजते हैं; प्रत्येक धर्म कहता है कि ’तू एक है और अद्वितीय है, मस्जिद में लोग तेरे प्रेम के कारण नमाज पढ़ते हैं और ईसाई गिरजाघरों में घंटियां बजाते हैं। मैं कभी ईसाईमठ में जाता हूँ और कभी मस्जिद में, परन्तु वह तू ही है, जिसकी खोज मैं मन्दिर-मन्दिर में करता फिरता हूँ।
तेरे कृपापात्र लोग विश्वास-भेद या कटटरता से कोई वास्ता नहीं रखते, क्यों कि इनमें से एक भी तेरे सत्य के पर्दे के पीछे नहीं आता। विश्वास-भेद भिन्न विश्वास वाले के लिए है और कट्टर व्यक्ति के लिए है। परन्तु गुलाब की पंखुड़ियों का पराग तो इत्र बेचने वाले के हृदय की वस्तु है। ’’ - ब्लाखमैन, आईने-अकबरी, पृ. 30 (भूमिका)।
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