भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
4.सर्वोच्च वास्तविकता
एक यान्त्रिक जगत की तुलना में उसका दूसरा विकल्प जोखिम और अभियान का जगत है। यदि ग़लतियों, कुरुपता और बुराई की सब प्रवृत्तियों का वर्जन कर देना हो, तो सत्य, शिव और सुन्दर की खोज हो ही नहीं सकती। यदि सत्य, सुन्दर और शिव के इन आदर्शों की सचेत कामना होनी हो, तो उनके विरोधी मिथ्या, कुरुपता और बुराई को केवल अव्यक्त सम्भावना नहीं रहना होगा, अपितु वे ऐसी सकारात्मक प्रवृत्तियां होंगी, जिनका हमें प्रतिरोध करना है। गीता के लिए यह संसार अच्छाई और बुराई के मध्य होने वाले एक सक्रिय संघर्ष की भूमि है, जिसमें परमात्मा की गहरी दिलचस्पी है। वह अपने प्रेम की सम्पत्ति उन मनुष्यों की सहायता करने के लिए लुटाता है, जो उन सब वस्तुओं का प्रतिरोध करते हैं, जो मिथ्या, कुरुपता और बुराई को जन्म देती हैं। क्योंकि परमात्मा पूर्णतया अच्छा है और उसका प्रेम असीम है, इसलिए वह संसार के कष्टों के सम्बन्ध में चिन्तित है। परमात्मा सर्वशक्तिमान है, क्योंकि उसकी शक्ति की कोई बाह्य सीमाएं नहीं हैं। संसार की सामाजिक प्रकृति परमात्मा पर नहीं थोपी गई, अपितु वह परमात्मा की इच्छा से बनी है। इस प्रश्न के उत्तर में कि क्या परमात्मा अपनी सर्वज्ञता से इस बात को पहले से जान सकता है कि मनुष्य किस ढंग से आचरण करेंगे और वे कर्म का चुनाव कर पाने की स्वतन्त्रता का सदुपयोग या दुरुपयोग करेंगे, हम केवल यह कह सकते हैं कि परमात्मा जिस वस्तु को नहीं जानता, वह सत्य नहीं है। वैयक्तिक ईश्वर इस विश्व की सृष्टि, रक्षा और संहार करता है।[4]भगवान की दो प्रकृतियां हैं - एक उच्चतर (परा) और दूसरी निम्नतर (अपरा)।[5]जीवित आत्माएं उच्चतर प्रकृति का प्रतिनिधत्व करती हैं और भौतिक माध्यम निम्नतर प्रकृति का प्रतिनिधि है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 18, 61
- ↑ 9, 42
- ↑ 7, 22
- ↑ जैकब बोएहमी से तुलना कीजिएः “सृष्टि पिता का कार्य थी। अवतार पुत्र का काम था, जबकि सृष्टि का अन्त पवित्र आत्मा के कार्य द्वारा होगा।”
- ↑ 7, 4-5
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज