भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-4
ज्ञानमार्ग जब भी कभी धर्म का ह्रास होता है और अधर्म की वृद्धि होती है, हे भारत (अर्जुन), तभी मैं (अवतार रूप में) जन्म लेता हूँ। ’’जब भी धर्म क्षीण होने लगता है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब सर्वशक्तिमान् हरि जन्म धारण करता है।’[1] जब भी जीवन में कोई गम्भीर तनाव आ जाता है, जब एक प्रकार का सर्वव्यापी भौतिकवाद मानवीय आत्माओं के हृदयों पर आक्रमण करने लगता है, तब समतुलन को बनाए रखने के लिए प्रत्युत्तर देने वाली ज्ञान और धर्म की अभिव्यक्ति आवश्यक होती है। भगवान् यद्यपि अजन्मा और अमर है, फिर भी वह अज्ञान और स्वार्थ की शक्तियों को परास्त करने के लिए मानवीय शरीर में प्रकट होता है। [2]अवतार का अर्थ है उतरना, वह जो नीचे उतरा है। दिव्य भगवान् संसार को एक ऊंचे स्तर तक उठाने के लिए पार्थिव स्तर पर उतर आता है। जब मनुष्य ऊंचा उठता है, तब परमात्मा नीचे उतर आता है। अवतार का उद्देश्य एक नये संसार का, एक नये धर्म का उद्घाटन करना है। अपने उपदेश और उदाहरण द्वारा वह यह प्रदर्शित करता है। कि किस प्रकार मनुष्य अपने-आप को जीवन के उच्चतर स्तर तक उठा सकता है। धर्म (सही) और अधर्म (गलत) के बीच का प्रश्न निर्णायक प्रश्न है। परमात्मा धर्म के पक्ष में कार्य करता है। प्रेम और दया अन्ततोगत्वा द्वेष और क्रूरता की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली हैं। धर्म अधर्म को जीत लेगा और सत्य की असत्य पर विजय होगी। मृत्यु, रोग और पाप के पीछे काम कर रही शक्तियाँ उस वास्तविकता द्वारा परास्त कर दी जाएंगी, जो सतृ, चित् और आनन्द है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ’ यदा यदेह धर्मस्य क्षयो वृद्धिश्च पाप्मनः। तदा तु भगवानीश आत्मानं सृजते हरिः ॥ - भागवत, 9, 24, 56
- ↑ तुलना कीजिए, विष्णुपुराण: यत्रावतीर्ण कृष्णाख्यं परं ब्रह्म नराकृतिः।
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