भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 9

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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आत्मा

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥25॥[1]

उसे अव्यक्त, चिन्तन के परे और विकार रहित कहा गया है। उसका यह रूप जानकर तुझे शोक नहीं करना चाहिये।

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥30॥[2]

सबके शरीर में इस प्रकार रहने वाला आत्मा नित्य और अवध्य है, इसलिये तुझे किसी प्राणी के लिये शोक नहीं करना चाहिए।

यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजंगमम् ।
क्षेत्र क्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥26॥[3]

जो भी चर-अचर प्राणी-जगत् उत्पन्न होता है, उसे तू आत्मा और शरीर के संयोग से उत्पन्न हुआ जान।

आत्मा का निवास किस स्थान पर है? क्या वह शिर में है, हृदय प्रदेश में है या और कहीं है? आत्मा सर्वव्यापी है; उसे शरीर के किसी विशेष भाग अथवा इंद्रिय में नहीं पाया जा सकता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2-25
  2. 2-30
  3. 13-26

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