भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 86

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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भगवदर्शन

नम: पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्व: ॥40॥[1]

मैं आपको आगे से नमस्कार करता हूँ, पीछे से नमस्कार करता हूँ; हे सर्व! मैं आपको सब दिशाओं से नमस्कार करता हूँ। आपका वीर्य अनन्त है, आपकी शक्ति अपार है। आप में सबकी पूर्ति होती है। आप स्वयं सब कुछ हैं।

पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् ।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिक: कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥43॥[2]

आप स्थावर-जंगम जगत के पिता हैं। आप उसके पूज्य और श्रेष्ठतम गुरु हैं। आपके समान कोई नहीं है, फिर आप से अधिक तो कौन हो सकता है! तीनों लोकों में आप से सामर्थ्य का जोड़ नहीं है।

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वाम मीशमीड्यम् ।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्यु:प्रिय: प्रियायार्हसि देव सोढुम् ॥44॥[3]

इसलिये मैं आपको साष्टांग नमस्कार करता हूँ। हे देव, मैं आप से प्रसन्न होने की प्रार्थना करता हूँ। जिस तरह पिता पुत्र को, सखा सखा को और प्रेमी अपनी प्रिया को सहन करता है, वैसे ही आप मुझे सहन करें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 11-40
  2. दोहा नं0 11-43
  3. दोहा नं0 11-44

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