भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 84

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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भगवदर्शन

दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भा: सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मन: ॥12॥[1]

यदि आकाश में सहस्त्र सूर्यों का तेज एक साथ प्रकाशित हो सकता तो वह उस महान रूप के तेज के जैसा कदाचित् होता।

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥13॥[2]

तब उस देवाधिदेव के शरीर में पांडव ने अनेक प्रकार से विभक्त हुआ समूचा जगत् एक रूप में विद्यमान देखा।

पश्चामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसंघान् ।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ॥15॥[3]

हे देव, आपकी देह में मैं देवतओं को, भिन्न-भिन्न प्रकार के सब प्राणियों के समुदायों को, कमलासन पर विराजमान प्रभु ब्रह्मा को, सब ऋषियों को और सर्प-देवताओं को देखता हूँ।

अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् ।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥16॥[4]

मैं आपको सर्वत्र अनेक हाथ, उदर, मुख और नेत्रयुक्त अनन्त रूप वाला देखता हूँ। हे विश्वेश्वर, हे विश्वरूप, मैं आपका आदि, मध्य और अन्त नहीं देखता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 11-12
  2. दोहा नं0 11-13
  3. दोहा नं0 11-15
  4. दोहा नं0 11-16

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