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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
जगत् की एकतापुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया । वह परम पुरुष, जिसके अन्तर्गत सर्व भूत स्थित हैं, जिससे वह सारा जगत व्याप्त है, अनन्त भक्ति से प्राप्त हो सकता है। कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्य: । जो मनुष्य सर्वज्ञ, पुरातन, अणु से भी सूक्ष्म, सबके पालक अचिन्त्यिस्वरूप, सूर्य के समान तेजस्वी, अन्धकार से परे परम पुरुष का स्मरण करता है- प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव । वह अन्तकाल में स्थिर-चित्त भक्तिमय होकर, अपने योगबल से प्राण को आकर्षित और भृकुटियों के बीच में स्थापित करके, परमात्मा में विलीन हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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