भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 81

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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जगत् की एकता

पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्त:स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥22॥[1]

वह परम पुरुष, जिसके अन्तर्गत सर्व भूत स्थित हैं, जिससे वह सारा जगत व्याप्त है, अनन्त भक्ति से प्राप्त हो सकता है।

कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्य: ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमस: परस्तात् ॥9॥[2]

जो मनुष्य सर्वज्ञ, पुरातन, अणु से भी सूक्ष्म, सबके पालक अचिन्त्यिस्वरूप, सूर्य के समान तेजस्वी, अन्धकार से परे परम पुरुष का स्मरण करता है-

प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् तं परंपुरुषमुपैति दिव्यम् ॥10॥[3]

वह अन्तकाल में स्थिर-चित्त भक्तिमय होकर, अपने योगबल से प्राण को आकर्षित और भृकुटियों के बीच में स्थापित करके, परमात्मा में विलीन हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 8-22
  2. दोहा नं0 8-9
  3. दोहा नं0 8-10

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