भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 8

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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आत्मा

न जायते म्रियते वा कदाचिन्-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय: ।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥20॥[1]

यह आत्मा न तो कभी पैदा होता है, न मरता है। होता हुआ, भविष्य में कभी न होने वाला भी नहीं है। अजन्मा, नित्य शाश्वत और पुरातन, यह देह के मारे जाने पर मारा नहीं जाता।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥22॥[2]

जिस प्रकार मनुष्य पुराने कपड़े उतार कर नये पहन लेता है, उसी प्रकार आत्मा भी जीर्ण शरीर त्याग कर नया धारण कर लेता है।

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्य: सर्वगत स्थाणुरचलोऽयं सनातन: ॥24॥[3]

वह छेदा, जलाया, भिगोया या सुखाया नहीं जा सकता। वह नित्य सर्वव्यापी, स्थिर, अचल और सनातन है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2-20
  2. 2-22
  3. 2-24

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