भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 76

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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जगत् की एकता

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूता न चात्मनि ।
इक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन: ॥29॥[1]

योग द्वारा ज्ञानी बना आत्मा अपने को सब भूतों में और सब भूतों को अपने में देखता है। उसकी दृष्टि में सब समान हैं।

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति ॥30॥[2]

जो सब में मुझको और सबको मुझ में देखता है, उसके लिये मैं सदा उपस्थित रहता हूँ, और मेरे लिए वह भी सदा उपस्थित है।

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित: ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥31॥[3]

जिसने पक्की तरह से एकता का साक्षात्कार कर लिया है और जो मुझे भूतमात्र में रहने वाले के रूप में भजता है, वह चाहे जैसे बर्तता हुआ भी योगी है और मुझ में ही बर्तता है।

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥20॥[4]

जब मनुष्य का ज्ञान उसे सब भूतों में अविनाशी एकता का और समस्त विधि रूपों में एक ही ‘वस्तु’ का दर्शन करने योग्य बनाता है, तब उसे सच्चा ज्ञान समझ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 6-29
  2. दोहा नं0 6-30
  3. दोहा नं0 6-31
  4. दोहा नं0 18-20

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