भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 6

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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आत्मा

(अध्याय 2-श्लोक 11-13,17,20,22,24,25 और 30। अध्याय 13-श्लोक 26, 32 और 33)

धर्म की पहली सीढ़ी यह है कि स्थूल शरीर में अन्तर्हित आत्मा के अस्तित्व को समझ लिया जाय। दृश्य शरीर ही सम्पूर्ण वास्तवकिता नहीं है। उसके अन्दर एक अदृश्य किन्तु सदा क्रियाशील गृह स्वामी-देही- विद्यमान है। वह शरीर का स्वामी है। उसके अस्तित्व का साक्षात्कार करने पर ही हम सच्चे रूप में जीवन-यापन कर सकते हैं। इस आत्मा को मस्तिष्क के भावात्मक कार्यों से मिलाना नहीं चाहिए। यह केवल विचार, इंद्रियज्ञान, भावना, इच्छाशक्ति और विवेक नहीं है। ये सब भौतिक शरीर के कार्य हैं। आत्मा इनसे विलग और इन सबके पृष्ठ पर है। उसका स्थान शरीर का कोई अंग-विशेष नहीं है। वह समस्त शरीर और इन्द्रियों में व्याप्त है। उस पर ‘विस्तार’ के नियमों का प्रभाव नहीं पड़ता। उसकी व्याप्ति वैसी ही है जैसे कि, भौतिक वैज्ञानिकों के कथानुसार, आकाश समस्त स्थान और पदार्थों में समाया हुआ है। आत्मा मनुष्य के ही नहीं, वरन् प्रत्येक प्राणी और वनस्पति, प्रत्येक जीवधारी के होता है। शरीर केवल कर्मक्षेत्र अथवा ‘क्षेत्रज्ञ’ कहलाता है। शरीर के मर जाने पर, गाड़ या जला दिये जाने पर अथवा वन्य पशु-पक्षियों द्वारा खा डाले जाने पर आत्मा की मृत्यु नहीं होती। मृत्यु पर शोक करना मूर्खता है, क्योंकि आत्मा अमर है। मृत्यु शरीर का निपात करती है, ठीक वैसे ही जैसे कि हम अपने कपड़े उतार देते हैं।

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता: ॥11॥[1]

श्री भगवान् ने कहा, तू उनके लिए शोक करता है, जो शोक के योग्य नहीं है; परन्तु बातें ज्ञानियों की-सी करता है। ज्ञानी जन न तो मरे हुए लोगों के लिये शोक करते हैं और न जीवितों के लिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2-11

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