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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
सबके लिए आशायो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति । जो-जो भक्त जिस-जिस स्वरूप की भक्ति श्रद्धापूर्वक करता है, उस-उस स्वरूप में उसकी श्रद्धा को मैं ही दृढ़ करता हूँ। स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते । वह उस श्रद्धा से युक्त होकर उस स्वरूप की आराधना करता है और उसके द्वारा मेरी नियत की हुई अपनी कामनाएँ पूरी करता है। येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता: । दूसरे देवताओं के भक्त भी, जो उन्हें श्रद्धापूर्वक भजते हैं, मुझे ही भजते हैं-यद्यपि यह विधिपूर्वक नहीं होता। पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । मुझे पत्र, फूल या जल जो कुछ भी भक्तिपूर्वक अर्पित किया जाता है, उसे मैं प्रयत्नशील आत्मा द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पित किया हुआ मानकर उत्सुकता के साथ ग्रहण करता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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