भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 59

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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सबके लिए आशा

यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धा तामेव विदधाम्यहम् ॥21॥[1]

जो-जो भक्त जिस-जिस स्वरूप की भक्ति श्रद्धापूर्वक करता है, उस-उस स्वरूप में उसकी श्रद्धा को मैं ही दृढ़ करता हूँ।

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥22॥[2]

वह उस श्रद्धा से युक्त होकर उस स्वरूप की आराधना करता है और उसके द्वारा मेरी नियत की हुई अपनी कामनाएँ पूरी करता है।

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता: ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥23॥[3]

दूसरे देवताओं के भक्त भी, जो उन्हें श्रद्धापूर्वक भजते हैं, मुझे ही भजते हैं-यद्यपि यह विधिपूर्वक नहीं होता।

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन: ॥26॥[4]

मुझे पत्र, फूल या जल जो कुछ भी भक्तिपूर्वक अर्पित किया जाता है, उसे मैं प्रयत्नशील आत्मा द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पित किया हुआ मानकर उत्सुकता के साथ ग्रहण करता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 7-21
  2. दोहा नं0 7-22
  3. दोहा नं0 9-23
  4. दोहा नं0 9-26

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