भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 57

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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आनुवंशिक संस्कार

यहां पर माया का अर्थ गुणों से संघटित भौतिक प्रकृति है। उपर्युक्त श्लोकों से से यह शिक्षा प्राप्त होती है कि मनुष्य जिन गुणों साथ अपनी जीवनयात्रा आरंभ करता है, उनसे ही उसके कर्मों का निर्धारण होता है। यदि कोई व्यक्ति हमारी दृष्टि में गलत काम करता हो तो हमें क्रोध अथवा घृणा नहीं करनी चाहिए और न अपने सत्कार्यों पर अभिमान ही करना चाहिए। इस श्लोकों का अर्थ यह नहीं लगाना चाहिए कि मनुष्य उत्तदायित्व से मुक्त है। गीता में स्पष्ट है कि गुणों के जिस भार के साथ हमारा जीवन प्रारम्भ होता है, उससे मुक्ति केवल वैयक्तिक प्रयत्नों और आत्मसंयम की साधना से ही हो सकती है। ‘मुनष्य पूर्वजन्म के कर्मों से उत्पन्न सहज संस्कारों के अनुसार कर्म करते हैं और इन संस्कारों की उपेक्षा करना संम्भव नहीं है’-यह शिक्षा दूसरों के प्रति उदार-भाव और अपने मन में शांति उत्पन्न करने के लिये है; अनुत्तरदायित्व का पाठ पढ़ाने के लिये नहीं। कर्मों से अनिवार्यतः उत्पन्न होने वाले गुणों के कारण यदि हम दूसरों के प्रति अधिक दयावान बनने के बदले क्रूरता और घृणा का व्यवहार करने लगें तो यह गीता की शिक्षा के विपरीत होगा।

आत्मा एक दृष्टि से वास्तविक कर्ता नहीं है, दूसरी से है। गुण शरीर में स्थित हैं, वे इन्द्रियों और शरीर को प्रवृत्त करते हैं और आत्मा को शरीर के अन्दर बन्दी रखते हैं,तथापि आत्मा अलिप्त होकर गुणों पर विजय प्राप्त कर सकता है। इसके लिए ज्ञान की आवश्यकता है। ज्ञान केवल अध्ययन अथवा ध्यान से प्राप्त नहीं होता। वास्तविक और उपयेागी रूप में उसकी प्राप्ति विचार और कर्मों पर नियन्त्रण करने से ही हो सकती है। मनुष्य की वृत्तियाँ, जिन्हें सामान्यतः सत्व, रज और तम में वर्गीकृत किया गया है, प्रकृति से उत्पन्न होती तथा उसी में परिमित रहती है, अर्थात् वह आत्मा को शरीर प्रदान करने वाली प्रकृति से उत्पन्न होती और उसी में स्थित रहती है; परन्तु उनका प्रभाव आत्मा पर पड़ता है। आत्मनिग्रह और सच्चे ज्ञान की साधना से आनुवंशिक और भौतिक प्रकृति के इन गुणों के होते हुए भी मनुष्य अपनी स्वतंत्रता प्राप्त कर सकता है। यदि वह आत्मनिग्रह और अलिप्तता की साधना न करेगा तो न केवल इस भार के साथ जकड़ा रहेगा, वरन् इसे और भी अधिक बढ़ा लेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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