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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
आनुवंशिक संस्कारप्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश: । जो समझता हे कि भौतिक प्रकृति की शक्तियाँ ही वस्तुतः सब कर्म करती हैं और आत्मा अकर्ता है, वही सत्य को जानता है। यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति । जब वह जीवों का अस्तित्व पृथक होन पर भी एक में ही स्थित देखता है और सारे विस्तार को उसी से उत्पन्न हुआ समझता है तब वह ब्रह्म को पाता है। अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्यय: । यह अविनाशी और पवित्र आत्मा अनादि और निर्गुण होने के कारण शरीर में रहता हुआ भी न कुछ करता है, न किसी से लिप्त होता है। सत्त्वं रजस्तम इति गुणा: प्रकृतिसम्भवा: । सत्व, रज और तम-इन गुणों से मनुष्य परिचालित होते हैं। ये गुण प्रकृति से उत्पन्न होने वाले हैं। शरीर में रहता हुआ आत्मा-यद्यपि वह अविनाशी है-इन गुणों से बंध जाता है और इनके द्वारा ही परिचालित होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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