भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 55

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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आनुवंशिक संस्कार

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश: ।
य: पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥29॥[1]

जो समझता हे कि भौतिक प्रकृति की शक्तियाँ ही वस्तुतः सब कर्म करती हैं और आत्मा अकर्ता है, वही सत्य को जानता है।

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥30॥[2]

जब वह जीवों का अस्तित्व पृथक होन पर भी एक में ही स्थित देखता है और सारे विस्तार को उसी से उत्पन्न हुआ समझता है तब वह ब्रह्म को पाता है।

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्यय: ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥31॥[3]

यह अविनाशी और पवित्र आत्मा अनादि और निर्गुण होने के कारण शरीर में रहता हुआ भी न कुछ करता है, न किसी से लिप्त होता है।

सत्त्वं रजस्तम इति गुणा: प्रकृतिसम्भवा: ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥5॥[4]

सत्व, रज और तम-इन गुणों से मनुष्य परिचालित होते हैं। ये गुण प्रकृति से उत्पन्न होने वाले हैं। शरीर में रहता हुआ आत्मा-यद्यपि वह अविनाशी है-इन गुणों से बंध जाता है और इनके द्वारा ही परिचालित होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 13-29
  2. दोहा नं0 13-30
  3. दोहा नं0 13-31
  4. दोहा नं0 14-5

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