भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 49

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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ध्यान

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा ॥17॥[1]

योग, जो दुःख का नाशक है, उसके लिए है, जो आहार-विहार में, अन्य कर्मों में, सोने-जागने में संयत और नियमित रहता है।

यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मन: ॥19॥[2]

पूर्णतया शांत वायु के स्थान में रखे हुए दीपक की शिखा स्थिर रहती है। मन को वश में रखने वाले योगी के अचल ध्यान को इसी समान बताया गया है।

सभी कार्यों में, जिनमें तपस्या भी सम्मिलित है, मध्यम मार्ग पर किये गये आग्रह का ध्यान रखना चाहिये। सफलता का रहस्य मन के साथ भागने में सतत प्रयत्नशील विचारों को वश में करने की निरंतर साधना में निहित है, तपस्या की अति कठोरता में नहीं।

संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषत: ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्तत: ॥24॥[3]

मन को समस्त कामनाओं से मुक्त करके और मन के द्वारा इन्द्रिय समूह को सब ओर से नियम में लाकर-

शनै: शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया ।
आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥25॥[4]

वह अपनी बुद्धि का निरन्तर प्रयोग करके धीरे-धीरे अन्तर्मुख होता जाय और इस प्रकार मन को आत्मा में स्थित करके दूसरी किसी बात का विचार न करे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 6-17
  2. दोहा नं0 6-19
  3. दोहा नं0 6-24
  4. दोहा नं0 6-25

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