भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 37

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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विहित कर्म

सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथाऽसक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ॥25॥[1]

जैसे अज्ञानी लोग आसक्त होकर कर्म करते हैं, वैसे ही ज्ञानी को आसक्तिरहित होकर लोक कल्याण्य की इच्छा से कर्म करना चाहिये।

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन् ॥26॥[2]

कर्म-फल में आसक्त अज्ञानी मनुष्य की बुद्धि को ज्ञानी डावांडोल न करे, परन्तु स्वयं योग के नियमों का अनुसरण करके कर्म करे और सब कर्मों को आकर्षक बनाए।

प्रकृतेर्गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥29॥[3]

प्रकृति के गुणों से मोहे हुए मनुष्य उस मोहजनित आसक्ति से कर्म में प्रवृत्त होते हैं। जिसे सत्य की अनुभूति हो गई है, वह इन दुर्बल मन वाले लोगों की कच्ची बुद्धि को अस्थिर न करे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 3-25
  2. दोहा नं0 3-26
  3. दोहा नं0 3-29

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