भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 35

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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विहित कर्म

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन: ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंग: समाचर ॥9॥[1]

मनुष्य कर्म-बन्धन में तभी पड़ता है जब वह यज्ञ की भावना को छोड़कर अन्य भावना से कर्म करता है; इसलिये तू आसक्ति छोड़कर यज्ञ की भावना से कर्म कर।

धार्मिक व्यक्ति के मन में सबसे पहले कर्म से निवृत्त होने और संसार का त्याग करने की स्फूर्ति होती है। प्राचीन हिन्दू धर्म-शिक्षा में इस वृत्ति की ओर सम्मान स्पष्ट है; परन्तु गीता में इसे निश्चित रूप से अस्वीकार कर दिया गया है। उसमें जोर दिया गया है कि आनुवंशिक प्रवृत्तियों के होते हुए कर्म करना अनिवार्य है। दमन से मन और भी स्वच्छन्द होता है। बाहरी रूप से इस पर अंकुश रखकर इसके अनुसार कर्म न करने से कोई लाभ नहीं होता। उससे मिथ्याचार और विकृति उत्पन्न होती है। दूसरी ओर अनासक्ति के अभ्यास से, आत्मा को अप्राकृतिक दमन के बिना ही आनुवंशिक गुणों के भार से मुक्त हो जाने की शिक्षा प्राप्त होती है।

प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥27॥[2]

हमारे सब कर्म हमारी प्रकृति के गुणों द्वारा निश्चित होते हैं। अहंकार से मूढ़ बना हुआ मनुष्य मानता है कि मैं ही कर्मा हूँ।

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो: ।
गुणा गुणेषु वर्तन्ते इति मत्वा न सज्जते ॥28॥[3]

परन्तु जो गुणों और कर्म का रहस्य जानता है, यह मानकर कि गुण अपनी अभिव्यक्ति कर रहे हैं; अपने आपको तटस्थ रखता है।

सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति ॥33॥[4]

ज्ञानी भी अपने स्वभाव के अनुसार बरतते हैं। प्राणी मात्र अपने स्वभाव का अनुसरण करते हैं। वहाँ दमन क्या कर सकता है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 3-9
  2. दोहा नं0 3-27
  3. दोहा नं0 3-28
  4. दोहा नं0 3-33

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