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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
विषय-प्रवेशधार्मिक ग्रन्थों को वे प्राचीनकाल की मूर्खता मानने लगते हैं; कुछ लोग तो इससे भी आगे बढ़कर उन्हें पाखंड के उपकरण और उसके व्यवहार के लिये समझ-बूझकर तैयार की हुई युक्तियां बताने लगते हैं; परन्तु जिन्होंने भौतिक विज्ञान का गंभीरतर अध्ययन करने का प्रयत्न किया है और, इस प्रकार, अपनी अनुपात-वृद्धि तथा निर्णय-शक्ति को कायम रखने के लिये पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया है, वे जानते हैं कि अज्ञात ज्ञात से कहीं अधिक विशाल है। अधिकाधिक समय बीतने के साथ मानव-बुद्धि की सीमा के अन्तर्गत ही लाया जा सकता है। सच्चे वैज्ञानिक न केवल अपनी नम्रता कायम रखते हैं, वरन् प्रकृति के कुछ गुह्य रहस्यों के कारण ही, उसका और भी अधिक नम्रता तथा भक्तिभाव से मनन करते हैं, जो कि सदैव माननीय विश्लेषण की परिधि के परे रहने वाला है। सब कारणों के कारण, सब नियमों के नियम को मानवीय तर्क अथवा गवेषणा के उच्चतम प्रयत्नों से भी समझा नहीं जा सकता। मानवीय तर्कशक्ति इतनी पूर्ण और समंजस है कि उसमें मर्यादा की अनुभूति के लिए स्थान ही नहीं; फिर भी, अंश कितना भी पूर्ण क्यों न हो, वह पूर्ण को परिव्याप्त नहीं कर सकता। पूंछ को मुंह में दबाये हुए सांप का प्रतीक- मानो वह अपने सम्पूर्ण शरीर को निगल रहा हो-सम्पूर्ण को परिव्याप्त करने के लिए प्रयत्नशील मानवीय मन की मर्यादा का सुन्दर द्योतक है। किसी मंच पर खड़े होकर उसे उठा भी लेना दानव के लिए भी संभव नहीं है। जो परम कारण हमारा आधार है और जिस पर हमारे मन की एक-एक गतिविधि अवलंबित है, उसे परिव्याप्त करने अथवा उसका मापन करने के लिये हम उससे तटस्थ नहीं हो सकते। मनुष्य के ज्ञान की यह मर्यादा वैज्ञानिक तथा दार्शनिक गवेषणाओं की सुपरिचित सीमा है। किसी भी सत्य का अवगाहन कीजिए, किसी भी प्रपंच की गवेषणा कीजिए या किसी भी विशिष्टता का पर्याप्त गहराई तक परीक्षण कीजिए, एक सीमा के बाद अज्ञात का शिलाखंड प्राप्त हो जाता है और उसके आगे उन्नति रुक जाती है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि प्रत्येक विषय में हमारी टक्कर ईश्वर से हो जाती है। वह अज्ञेय, सर्वव्यापी है। ज्ञात और ज्ञेय अमर्याद-रहस्य क्षेत्र के क्षुद्र स्तर मात्र हैं। यही मर्यादा-रहित अज्ञात धर्म, धर्मग्रन्थों और ऋषि-मुनियों की वाणी तथा कार्यों का विषय होता है। उनकी पद्धति वह नहीं है, जो वस्तु के संबंध में विज्ञान की होती है। वह भिन्न है और वहीं एकमात्र संभव पद्धति भी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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