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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
ईश्वर और प्रकृतिइच्छद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत । इच्छा और द्वेष की परस्पर विरोधी शक्तियों के धोखे में पड़कर सारा जगत् मोहग्रस्त रहता है। द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । प्राणीमात्र में दो तत्व या पुरुष हैं-एक परिवर्तनशील या क्षर, दूसरा अपरिवर्तनशील या अक्षर। प्राणियों का समस्त शरीर क्षर और जीवात्मा अक्षर है। उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत: । उत्तम तत्व अथवा पुरुष इससे भिन्न है। वह परमात्मा कहलाता है। वह अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में व्याप्त होकर उनका धारण करता है। यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम: । मैं क्षर और अक्षर दोनों से ऊपर हूँ; इसलिए लोक और वेद में ‘परम् आत्मा’ अथवा ‘पुरुषोत्तम्’ नाम से प्रख्यात हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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