भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 18

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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ईश्वर और प्रकृति

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो: ।
प्रणव: सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु ॥8॥[1]

जल में रस मैं हूं; सूर्य और चन्द्र में प्रभा मैं हूं; सब वेदों में ऊँ मैं हूं; आकाश में शब्द मैं हूं; पुरुषों में पुरुषत्व मैं हूं।

पुण्यो गन्ध: पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥9॥[2]

पृथ्वी में सुगन्ध, अग्नि में तेज, सब प्राणियों में जीवन और तपस्वियों में तप मैं हूं।

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धिपार्थ सनातनम् ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥10॥[3]

सब प्राणियों का सनातन बीज मुझे जान। बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज मैं हूं।

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥11॥[4]

बलवानों का काम और राग से रहित बल मैं हूं, मैं वह काम हूं, जो धर्म-विरुद्ध न होता हुआ सब प्राणियों को क्रियाशील रखता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 7-8
  2. दोहा नं0 7-9
  3. दोहा नं0 7-10
  4. दोहा नं0 7-11

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